परमेश्वर के प्रासंगिक वचन: परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य संसार की उत्पत्ति से प्रारम्भ हुआ था और मनुष

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य संसार की उत्पत्ति से प्रारम्भ हुआ था और मनुष्य उसके कार्य का मुख्य बिन्दु है। ऐसा कह सकते हैं कि परमेश्वर की सभी चीज़ों की सृष्टि, मनुष्य के लिए ही है। क्योंकि उसके प्रबंधन का कार्य हज़ारों सालों से अधिक में फैला हुआ है, और यह केवल एक ही मिनट या सेकंड में या पलक झपकते या एक या दो सालों में पूरा नहीं होता है, उसे मनुष्य के अस्तित्व के लिए बहुत-सी आवश्यक चीज़ों का निर्माण करना पड़ा जैसे सूर्य, चंद्रमा, सभी जीवों का सृजन और मानवजाति के लिए आहार और रहने योग्य पर्यावरण। यही परमेश्वर के प्रबंधन का प्रारम्भ था।

— "केवल परमेश्वर के प्रबंधन के मध्य ही मनुष्य बचाया जा सकता है" से उद्धृत

परमेश्वर ने जातियों का बंटवारा करने के लिए कौन सा कार्य किया है? पहले तो, उसने विशाल भौगोलिक वातावरण, तैयार किया, और लोगों के लिए अलग-अलग स्थान नियुक्त किये, और फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग वहाँ रहते हैं। यह तय हो चुका है-उनके जीवित रहने के लिए दायरा तय हो चुका है। और उनकी ज़िन्दगियां, जो वे खाते हैं, जो वे पीते हैं, उनकी आजीविका-परमेश्वर ने यह सब बहुत पहले ही तय कर दिया था। और जब परमेश्वर सभी प्राणियों की सृष्टि कर रहा था, उसने अलग-अलग प्रकार के लोगों के लिए अलग-अलग तैयारियां कीः मिट्टी के अलग-अलग घटक, विभिन्न जलवायु, विभिन्न पौधे, और विभिन्न भौगोलिक वातावरण हैं। विभिन्न स्थानों में पक्षी और पशु भी भिन्न-भिन्न हैं, जल के विभिन्न स्रोतों में विशेष प्रकार की मछलियां और जल में उत्पन्न होने वाले उत्पाद हैं। कीड़े-मकोड़ों के किस्मों को भी परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया गया है। …इन विभिन्न पहलुओं की भिन्नताओं को शायद लोगों के द्वारा देखा या महसूस नहीं किया जा सकता है, किन्तु जब परमेश्वर सभी प्राणियों की सृष्टि कर रहा था, तब उसने उनकी रूपरेखा को निरुपित किया और भिन्न-भिन्न जातियों के लिए विभिन्न भौगोलिक वातावरण, विभिन्न भूभागों, और विभिन्न जीवित प्राणियों को तैयार किया था। क्योंकि परमेश्वर ने विभिन्न प्रकार के लोगों का सृजन किया था, और वह जानता है कि उनमें से प्रत्येक की जरूरत क्या है और उनकी जीवनशैलियां क्या हैं।

— "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX" से उद्धृत


इन अलग-अलग मानवीय जीवनशैलियों की मूल परिस्थितियाँ क्या हैं? क्या उन्हें जीवित रहने के लिए अपने वातावरण का मूलभूत संरक्षण करने की आवश्यकता नहीं होती? दूसरे अर्थ में, यदि शिकारी को पहाड़ी जंगलों या पक्षियों और पशुओं को खोना पड़े, तो उनके पास आगे से अपनी कोई जीविका न रहे। अतः ऐसे लोग जो शिकार पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं यदि उन्होंने पहाड़ी जंगलों को खो दिया और उनके पास कोई पक्षी और पशु न बचें, और अगर उनके पास अपनी जीविका का कोई स्रोत न बचे तो उस प्रकार का जातीय समूह कहाँ जाएगा, यह किसी को ज्ञात नहीं और वे लुप्त भी हो सकते हैं। और ऐसे लोग जो अपनी जीविका के लिए मवेशियों के झुण्ड चराते हैं-वे किस पर आश्रित हैं। वास्तव में वे जिस पर निर्भर हैं वह उनके पालतू पशुओं का झुण्ड नहीं है, बल्कि वह वातावरण है, जिसमें उनके पालतू पशुओं का झुण्ड जीवित रहता है-घास के मैदान। यदि कहीं कोई घास के मैदान नहीं होते, तो वे अपने पालतू पशुओं के झुण्ड को कहां चराते? मवेशी और भेड़ क्या खाते? पालतू पशुओं के झुण्ड के बिना, खानाबदोश लोगों के पास कोई जीविका नहीं होती। अपनी जीविका के स्रोत के बिना, ऐसे लोग कहां जाते? ज़िन्दा रहना बहुत ही कठिन हो जाता; उनके पास कोई भविष्य नहीं होता। पानी के स्रोतों के बिना, नदियां और झीलें सूख जातीं। क्या वे सभी मछलियां जो अपनी ज़िन्दगियों के लिए पानी पर निर्भर हैं जीवित रहतीं? वे मछलियां जीवित नहीं रहतीं। वे लोग जो अपनी जीविका के लिए उस जल और उन मछलियों पर आश्रित हैं, क्या वे जीवित रह पाते? यदि उनके पास भोजन नही होता, यदि उनके पास अपनी जीविका का स्रोत नहीं होता, तो वे लोग जीवित रह पाते। यदि उनकी जीविका या उनके जीवित रहने में कोई समस्या आती है, तो वे जातियां आगे अपना वंश नहीं चला पातीं। वे लुप्त हो सकती थीं, पृथ्वी से मिट गई होतीं। और जो लोग अपनी जीविका के लिए खेती बाड़ी करते हैं यदि वे अपनी मिट्टी खो देते, फसलें नहीं उगा पाते, और विभिन्न पौधों से अपने भोजन को प्राप्त नहीं कर पाते तो इसका परिणाम क्या होता? भोजन के बिना, क्या लोग भूख से मर नहीं जाते? यदि लोग भूख से मर जाते, तो क्या उस तरह के मानव का सफाया नहीं हो जाता? अतः विभिन्न वातावरण को बनाए रखने के लिए यह परमेश्वर का उद्देश्य है। विभिन्न वातावरण और पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने, और प्रत्येक वातावरण के अंतर्गत विभिन्न जीवित प्राणियों को बनाए रखने में उसका सिर्फ एक ही उद्देश्य है-वह है सब प्रकार के प्राणियों का पालन-पोषण करना, हर तरह के लोगों का पालन-पोषण करना, विभिन्न भौगोलिक वातावरण में जीने वाले लोगों का पालन-पोषण करना।

यदि सभी प्राणी अपने नियम न अपनाएँ, तो उनका अस्तित्व न रहे; यदि सभी प्राणियों के नियम खत्म हो गए, तो जीवित प्राणी सभी जीवों के मध्य नहीं बने रह पाएंगे। मनुष्य जीवित रहने के लिए अपने वातावरण को भी गँवा देता जिस पर वह जीवित रहने के लिए निर्भर है। यदि मनुष्य वह सब कुछ गँवा देता, तो वह लगातार जीवित नहीं रह पाएगा और पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहुगुणित नहीं हो पाएगा। मनुष्य आज तक ज़िन्दा बचा हुआ है तो उसका कारण है कि परमेश्वर ने मानवजाति को उसका पोषण करने के लिये सभी तरह के जीव प्रदान किए हैं, ताकि विभिन्न तरीकों से वे जीव मानवजाति का पोषण करें। चूँकि परमेश्वर विभिन्न तरीकों से मानवजाति का पालन-पोषण करता है, इसीलिये वह आज तक जीवित बची हुई है, कि वे आज तक ज़िन्दा बचे हुए हैं।

— "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX" से उद्धृत

यहोवा ने मनुष्यजाति का निर्माण किया, अर्थात्, उसने मनुष्यजाति के पूर्वजों, हव्वा और आदम, का सृजन किया, किन्तु उसने उन्हें आगे कोई ज्ञान या बुद्धि प्रदान नहीं की। यद्यपि वे पहले से ही पृथ्वी पर रह रहे थे, किन्तु उन्हें समझ में लगभग कुछ नहीं आता था। और इसलिए, मनुष्यजाति का सृजन करने का यहोवा का कार्य केवल आधा-समाप्त हुआ था, और पूर्ण नहीं था। उसने केवल मिट्टी से मनुष्य का एक नमूना बनाया था और उसे अपनी साँस दे दी थी, किन्तु परमेश्वर का सम्मान करने की मनुष्य को पर्याप्त इच्छा प्रदान किए बिना। आरंभ में, मनुष्य का मन परमेश्वर का सम्मान करने, या उससे डरने का नहीं था। मनुष्य केवल इतना ही जानता था कि उसके वचनों को कैसे सुनना है, किन्तु पृथ्वी पर जीवन के बुनियादी ज्ञान और जीवन के उचित नियमों के बारे में अनभिज्ञ था। और इसीलिए, यद्यपि यहोवा ने पुरुष और स्त्री का सृजन किया और सात दिन की परियोजना को पूरा किया, फिर भी उसने किसी भी प्रकार से मनुष्य के सृजन को पूरा नहीं किया, क्योंकि मनुष्य केवल एक भूसा था, और उसमें मनुष्य होने की वास्तविकता का अभाव था। मनुष्य केवल इतना ही जानता था कि यह यहोवा था जिसने मनुष्यजाति का सृजन किया था, किन्तु उसे इस बात का कोई आभास नहीं था कि कैसे यहोवा के वचनों और व्यवस्थाओं का पालन किया जाए। और इसलिए, मनुष्यजाति के सृजन के बाद, यहोवा का कार्य अभी ख़त्म होने से बहुत दूर था। उसे अभी भी मनुष्यजाति का पूरी तरह से मार्गदर्शन करना था ताकि वह उसके सामने आए, ताकि वे धरती पर एक साथ रहने और उसका सम्मान करने में समर्थ हो जाएँ, और ताकि वे उसके मार्गदर्शन से धरती पर एक उचित मानव जीवन के सही रास्ते पर प्रवेश करने में समर्थ हो जाएँ। केवल इसी तरह से वह कार्य पूर्णतः सम्पन्न हुआ जिसे मुख्यतः यहोवा के नाम के अधीन आयोजित किया गया था; अर्थात्, केवल इसी तरह से दुनिया का सृजन करने का यहोवा का कार्य पूरी तरह से सम्पन्न हुआ था। और इसलिए, मनुष्यजाति का सृजन करके, उसे पृथ्वी पर हजारों वर्षों तक मनुष्यजाति के जीवन का मार्गदर्शन करना था, ताकि मनुष्यजाति उसके आदेशों और व्यवस्थाओं का पालन करने, और पृथ्वी पर एक सामान्य मानव जीवन की सभी गतिविधियों में हिस्सा ले पाने में समर्थ हो जाए। केवल तभी यहोवा का कार्य पूर्णतः सम्पन्न हुआ था।

— "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से उद्धृत

व्यवस्था के युग में यहोवा के कार्य के बाद, परमेश्वर ने दूसरे चरण का अपना कार्य प्रारम्भ किया: देह-धारण कर—दस, बीस साल के लिए मनुष्य के समान अवतरण लेकर—विश्वासियों के मध्य बातचीत करते हुए अपना कार्य किया। फिर भी बिना किसी अपवाद के, कोई भी नहीं जान पाया और प्रभु यीशु को क्रूस पर लटकाने और उसके पुनर्जीवित होने के बाद बहुत थोड़े से लोगों ने इस बात को माना कि वह परमेश्वर था जो देहधारण करके आया था। …जैसे ही परमेश्वर के कार्य का दूसरा चरण पूर्ण हुआ—सूली पर चढ़ाने के बाद—परमेश्वर का मनुष्यों को पाप से बचाने का कार्य (अर्थात मनुष्यों को शैतान की अधीनता से छुड़ाना) पूर्ण किया गया। इसलिए, उस क्षण के बाद से, मानवजाति को प्रभु यीशु को उसके पापों की क्षमा के लिये उद्धारकर्ता के तौर पर स्वीकार करना ही पड़ा। नाममात्र को कहने के लिए, अब मनुष्य के पाप उसके उद्धार को प्राप्त करने और परमेश्वर के सामने आने के लिए अवरोध नहीं रह गए थे और न ही शैतान द्वारा मनुष्य को दोषी ठहराने का लाभ उठाने के लिये रह गए थे। इसका कारण यह है कि परमेश्वर ने स्वयं वास्तविक कार्य किया था, वह उनके जैसा बन गया था और उसने स्वयं पापमय देह का स्वाद चखा था, और परमेश्वर स्वयं पाप बलि बन कर आया। इस प्रकार से, परमेश्वर का देह और देह की समानता की बदौलत मनुष्य क्रूस पर से उतारा गया, छुड़ाया गया एवं बचाया गया। इसलिए, शैतान के द्वारा बंदी बना लिए जाने के बाद, मनुष्य परमेश्वर के सामने उद्धार को ग्रहण करने के लिए एक कदम पास आया। बेशक, कार्य का यह चरण परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य था जो एक कदम आगे था और व्यवस्था के युग से गहरा स्तर था।

…………

और इसके बाद परमेश्वर के राज्य का युग आया, जो कि कार्य का और भी अधिक व्यवहारिक चरण है और मनुष्य के लिए उसे स्वीकार करना सबसे कठिन भी। वजह यह है कि जितना अधिक मनुष्य परमेश्वर के नज़दीक आता है, परमेश्वर की छड़ी इंसान के उतने ही करीब पहुँचती है और मनुष्य के सामने परमेश्वर का चेहरा उतना ही अधिक स्पष्ट होता जाता है। मानवजाति के छुटकारे के साथ मनुष्य औपचारिक तौर पर परमेश्वर के परिवार में लौट आता है। मनुष्य ने सोचा कि अब आनन्द का समय आया है, फिर भी वह पूरी तरह से परमेश्वर के ऐसे आक्रमण का सामना करने के लिए अधीन है जैसा कि कभी किसी ने नहीं देखा। लेकिन हुआ ऐसा कि, यह एक बपतिस्मा है जिससे परमेश्वर के लोगों को "आनन्द" लेना है। इस प्रकार के व्यवहार में, लोगों के पास ठहरकर सोचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता, मैं, कई सालों तक खोया हुआ एक मेमना हूं, जिसे वापस पाने के लिए परमेश्वर ने कितना कुछ खर्च किया है, तो परमेश्वर मुझसे इस प्रकार का व्यवहार क्यों करता है? क्या यह परमेश्वर का मुझ पर हंसने का, और मुझे प्रगट करने का तरीका है? …बरसों बीत जाने के बाद, मनुष्य शोधन और ताड़ना की कठिनाइयाँ सह-सहकर सिर्फ़ जीर्ण-शीर्ण हो कर रह गया है, हालांकि मनुष्य ने अतीत की "महिमा" और "प्रणय" को खो दिया है, उसने अनजाने में मनुष्य होने के सत्य को समझ लिया है, और मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सालों के समर्पण को भी समझ गया है। मनुष्य धीरे-धीरे स्वयं की बर्बरता से घृणा करने लगता है। वह अपनी असभ्यता से घृणा करने लगता है, और परमेश्वर के प्रति सभी प्रकार की गलतफहमियों से तथा उन सभी अनुचित मांगों से भी वह घृणा करने लगता है जो वह परमेश्वर से करता रहा है। समय को वापस नहीं लाया जा सकता है; अतीत की घटनाएं मनुष्य के लिए पछतावा करने वाली यादें बनकर रह जाती हैं, और परमेश्वर के वचन और प्रेम मानव के लिए नए जीवन की प्रेरणा शक्ति बन जाते हैं। मनुष्य के घाव दिन प्रतिदिन भरते जाते हैं, उसकी सामर्थ्य वापस आने लगती है, और वह खड़ा होता है और सर्वशक्तिमान के चेहरे की ओर देखने लगता है … उसे तभी पता चलता है कि परमेश्वर हमेशा से मेरे साथ रहा है और उसकी मुस्कान और सुन्दर चेहरा अभी भी बहुत जोशीला है। उसके हृदय में अभी भी अपने द्वारा रची गई मानवजाति के लिए चिंता रहती है, और उसके हाथों में अभी भी वही गर्मी और शक्ति है जो आरंभ में थी। जैसे कि मानव अदन के बाग में लौट आया हो, लेकिन फिर भी इस बार मनुष्य सांप के प्रलोभनों को नहीं सुनता है, यहोवा के चेहरे से दूर नहीं जाता है। मनुष्य परमेश्वर के सामने घुटने टेकता है, परमेश्वर के मुस्कुराते हुए चेहरे को देखता है, और उसे अपनी सबसे प्रिय भेंट चढ़ाता है—ओह! मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर!

— "केवल परमेश्वर के प्रबंधन के मध्य ही मनुष्य बचाया जा सकता है" से उद्धृत

परमेश्वर के प्रबंधन के अस्तित्व के समय से ही, वह अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए हमेशा ही पूरी तरह से समर्पित रहा है। उनसे अपने व्यक्तित्व को छिपाने के बावजूद, वह हमेशा मनुष्य के अगल बगल ही रहा है, उन पर कार्य करता रहा है, अपने स्वभाव को प्रकट करता रहा है, अपने सार से समूची मानवजाति की अगुवाई करता रहा है, और अपनी सामर्थ्‍य, अपनी बुद्धि, और अपने अधिकार के माध्यम से हर एक व्यक्ति पर अपना कार्य करता रहा है, इस प्रकार वह व्यवस्था के युग, अनुग्रह के युग, और अब राज्य के युग को अस्तित्व में लाया है। यद्यपि परमेश्वर मनुष्य से अपने व्यक्तित्व को छुपाता है, फिर भी उसके स्वभाव, उसके स्वरूप, और मानवजाति के प्रति उसकी इच्छा को खुले तौर से मनुष्य पर देखने एवं अनुभव करने के लिए प्रकट किया गया है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि मानव परमेश्वर को देख या स्पर्श नहीं कर सकता है, फिर भी परमेश्वर का स्वभाव एवं परमेश्वर का सार जिसके सम्पर्क में मानवता रही है वे पूरी तरह से स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या यह सत्य नहीं है? इसके बावजूद कि परमेश्वर किस तरीके से एवं किस कोण से अपना कार्य करता है, वह हमेशा लोगों से अपनी सच्ची पहचान के अनुसार बर्ताव करता है, ऐसा कार्य करता है जो उसे करना चाहिए और वैसी बातें कहता है जो उसे कहने चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर किस स्थान से बोलता है—वह तीसरे आसमान में खड़ा हो सकता है, या देह में खड़ा हो सकता है, या यहाँ तक कि एक साधारण व्यक्ति के रूप में भी—वह बिना किसी छल या छिपाव के हमेशा अपने सारे हृदय और अपने सारे मन के साथ मनुष्य से बोलता है। जब वह अपने कार्य को क्रियान्वित करता है, परमेश्वर अपने वचन एवं अपने स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, और बिना किसी प्रकार के सन्देह के जो वह है उसे प्रकट करता है। वह अपने जीवन और अपने स्वरूप के साथ मानवजाति की अगुवाई करता है।

— "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I" से उद्धृत

जब परमेश्वर किसी पर कार्य करना आरम्भ करता है, जब वह किसी को चुन लेता है, तो वह इसकी घोषणा किसी को नहीं करता है, न ही वह इसकी घोषणा शैतान को करता है, कोई भव्य भाव प्रदर्शन तो बिलकुल नहीं करता है। वह बस बहुत शान्ति से, बहुत स्‍वाभाविक रूप से जो ज़रूरी है उसे करता है। सबसे पहले, वह तुम्हारे लिए एक परिवार चुनता है; उस परिवार की पृष्ठभूमि किस प्रकार की है, कौन तुम्हारे माता-पिता हैं, कौन तुम्हारे पूर्वज हैं—यह सब पहले से ही परमेश्वर के द्वारा तय किया गया था। दूसरे शब्दों में, ये उसके द्वारा आवेग पर लिए गए निर्णय नहीं थे, बल्कि इसके बजाए यह ऐसा कार्य था जिसे लम्बे समय पहले शुरू किया था। जब एक बार परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिवार का चुन लेता है, तो वह उस तिथि को भी चुनता है जब तुम्हारा जन्म होगा। वर्तमान में, जब तुम रोते हुए इस संसार में जन्म लेते हो तो परमेश्वर देखता है, तुम्हारे जन्म को देखता है, तुम्हें देखता है जब तुम अपने पहले शब्दों को बोलते हो, तुम्हें देखता है जब तुम लड़खड़ाते हो और डगमगाते हुए अपने पहले कदमों को उठाते हो, और सीखते हो कि कैसे चलना है। पहले तुम एक कदम लेते हो फिर दूसरा कदम लेते हो … अब तुम दौड़ सकते हो, अब तुम कूद सकते हो, अब तुम बात कर सकते हो, अब तुम अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकते हो। जैसे-जैसे मनुष्य बड़ा होता है, शैतान की निगाह उनमें से प्रत्येक पर जम जाती हैं, जैसे कोई बाघ अपने शिकार को देख रहा हो। परन्तु अपने कार्य को करने में, परमेश्वर कभी भी मनुष्य, घटनाओं या चीज़ों, अन्तराल या समय की सीमाओं से पीड़ित नहीं हुआ है; वह वही करता है जो उसे करना चाहिए और वही करता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। बड़े होने की प्रक्रिया में, हो सकता है कि तुम कई चीज़ों का सामना कर सकते हो जो तुम्हारी पसन्द की न हों, बीमारियों एवं कुंठाओं का सामना कर सकते हो। परन्तु जैसे-जैसे तुम इस मार्ग पर चलते हो, तो तुम्हारा जीवन और तुम्हारा भविष्य सख्ती से परमेश्वर की देखरेख के अधीन होता है। परमेश्वर तुम्हें एक विशुद्ध गारंटी देता है जो सम्पूर्ण जीवन भर बनी रहती है, क्योंकि वह, तुम्हारी रक्षा करते हुए और तुम्हारी देखभाल करते हुए, बिलकुल तुम्हारे बगल में ही है। इस बात से अनजान, तुम बड़े होते हो। तुम नई-नई चीज़ों के सम्पर्क में आने लगते हो और इस संसार को और इस मानवजाति को जानना आरम्भ करते हो। तुम्हारे लिए हर एक चीज़ ताज़ी और नयी होती है। तुम जो पसन्द करते हो उसे करना तुम्हें अच्छा लगता है। तुम अपनी स्वयं की मानवता के भीतर रहते हो, अपने स्वयं के जीवन के दायरे में भीतर जीते हो, और तुम्हारे पास परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में जरा सी भी अनुभूति नहीं होती है। परन्तु जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो परमेश्वर मार्ग के हर कदम पर तुम्हें देखता है, और तुम्हें देखता है जब तुम आगे की ओर हर कदम उठाते हो। यहाँ तक कि जब तुम ज्ञान सीखते हो, या विज्ञान का अध्ययन करते हो, तो एक कदम के लिए भी परमेश्वर ने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा है। इस मामले में तुम भी अन्य लोगों के ही समान हो, इस संसार को जानने और उसके सम्पर्क में आने के दौरान, तुमने अपने स्वयं के आदर्शों को स्थापित कर लिया है, तुम्हारे अपने स्वयं के शौक, तुम्हारी स्वयं की रूचियाँ हैं, और तुम ऊँची महत्वाकांक्षाओं को भी आश्रय देते हो। तुम प्रायः अपने स्वयं के भविष्य पर विचार करते हो, प्राय: रूपरेखा खींचते हो कि तुम्हारा भविष्य कैसा दिखना चाहिए। परन्तु मार्ग पर चाहे कुछ भी क्यों न होता हो, परमेश्वर स्पष्ट आँखों से सब कुछ देखता है। हो सकता है कि तुम स्वयं अपने अतीत को भूल गए हो, परन्तु परमेश्वर के लिए, ऐसा कोई नहीं है जो उससे बेहतर तुम्हें समझ सकता है। तुम बड़े होते हुए, परिपक्व होते हुए, परमेश्वर की दृष्टि के अधीन रहते हो। …जब तुम्हारा जन्म हुआ उस समय से लेकर अब तक, परमेश्वर ने तुम पर बहुत सा कार्य सम्पन्न किया है, परन्तु हर चीज़ जो उसने की है वह उसका तुम्हें विस्तृत विवरण नहीं देता है। परमेश्वर ने जानने की तुम्हें अनुमति नहीं दी, और उसने तुम्हें नहीं बताया। हालाँकि, मनुष्य के लिए, हर चीज़ जो परमेश्वर करता है वह महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के लिए, यह कुछ ऐसी चीज़ है जो उसे अवश्य करनी चाहिए। उसके हृदय में कोई महत्वपूर्ण चीज़ है जो उसे करने की आवश्यकता है जो इन चीज़ों में से किसी से भी कहीं बढ़कर है। वह है, जब मनुष्य पैदा हुआ था उस समय से लेकर अब तक, परमेश्वर को उनकी सुरक्षा की गारंटी अवश्य देनी चाहिए। इन वचनों को सुनने के बाद, हो सकता है कि तुम लोग ऐसा महसूस करो मानो कि तुम लोगों की समझ में पूरी तरह से नहीं आता है, यह कहो कि, "क्या यह सुरक्षा इतनी महत्वपूर्ण है?" तो "सुरक्षा" का शाब्दिक अर्थ क्या है? हो सकता है कि तुम लोग इसका अर्थ शांति समझते हो या हो सकता है कि तुम लोग इसका अर्थ कभी भी विपत्ति या आपदा का अनुभव न करना, अच्छी तरह से जीवन बिताना, एक सामान्य जीवन बिताना समझते हो। परन्तु अपने हृदय में तुम लोगों को अवश्य जानना चाहिए कि यह उतना सरल नहीं है। तो पृथ्वी पर यह क्या चीज़ है जिसके बारे में मैं बात करता रहा हूँ, जिसे परमेश्वर को करना है? परमेश्वर के लिए सुरक्षा का क्या अर्थ है? क्या यह वास्तव में तुम लोगों की सुरक्षा की गारंटी है? नहीं। तो वह क्या है जो परमेश्वर करता है? इस सुरक्षा का अर्थ यह है कि तुम्हें शैतान के द्वारा निगला नहीं जा रहा है। क्या यह महत्वपूर्ण है? तुम्हें शैतान के द्वारा निगला नहीं जाता है, तो क्या यह तुम्हारी सुरक्षा से सम्बन्धित है, या नहीं? यह तुम्हारी व्यक्तिगत सुरक्षा से सम्बन्धित है, और इससे अधिक महत्वपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता है। जब एक बार तुम शैतान के द्वारा निगल लिए जाते हो, तो न तो तुम्हारी आत्मा और न ही तुम्हारा शरीर अब और परमेश्वर से संबंधित है। परमेश्वर तुम्हें अब और नहीं बचाएगा। परमेश्वर इस तरह की आत्माओं को त्याग देता है और इस तरह के लोगों को छोड़ देता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो परमेश्वर को करनी है वह है तुम्हारी सुरक्षा की गारंटी देना, यह गारंटी देना कि तुम शैतान के द्वारा निगले नहीं जाओगे। यह काफ़ी महत्वपूर्ण है, है न? तो तुम लोग उत्तर क्यों नहीं दे सकते हो? लगता है कि तुम लोग परमेश्वर की महान दया को महसूस नहीं कर सकते हो!

परमेश्वर मनुष्यों को सुरक्षा की गारंटी देने, और यह गारंटी देने कि वे शैतान के द्वारा निगले नहीं जाएँगे के अतिरिक्त बहुत कुछ करता है; वह किसी को चुनने और उन्हें बचाने की तैयारी में बहुत से कार्य करता है। सबसे पहले, किस प्रकार का तुम्हारा चरित्र है, किस प्रकार के परिवार में तुम पैदा होगे, कौन तुम्हारे माता-पिता हैं, तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं, जिस परिवार में तुम्‍हारा जन्‍म हुआ है उसकी स्थिति, आर्थिक दशा और परिस्थितियाँ क्या हैं—इन सबकी परमेश्वर के द्वारा तुम्हारे लिए कड़ी मेहनत से व्यवस्था की जाती है। …बाहरी तौर पर, ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर ने मनुष्य के लिए ऐसा कुछ नहीं किया है जो पृथ्वी को हिला दे; वह बस सब-कुछ गुप्त रीति से, विनम्रता से और खामोशी से करता है। परन्तु वास्तव में, वह सब जो परमेश्वर करता है तुम्हारे उद्धार हेतु एक नींव डालने के लिए, आगे का मार्ग तैयार करने के लिए और तुम्हारे उद्धार के लिए सभी आवश्यक स्थितियाँ तैयार करने के लिए करता है। प्रत्येक व्यक्ति के निर्दिष्ट समय पर तुरन्त, परमेश्वर उन्हें वापस अपने सामने लाता है—जब परमेश्वर की आवाज़ सुनने का तुम्हारा समय आता है, तो यही वह समय होता है जब तुम उसके सामने आते हो। जब यह घटित होता है उस समय, कुछ लोग पहले ही स्वयं माता-पिता बन चुके होते हैं, जबकि अन्य लोग तो सिर्फ किसी के बच्चे होते हैं। दूसरे शब्दों में, कुछ लोगों ने विवाह कर लिया होता है और उनके बच्चे हो जाते हैं जबकि कुछ अभी भी अकेले ही होते हैं, उन्होंने अभी तक अपने स्वयं के परिवार शुरू नहीं किये होते हैं। परन्तु लोगों की स्थितियों की परवाह किए बिना, परमेश्वर ने पहले से ही समय निर्धारित कर दिया है जब तुम्हें चुना जाएगा और जब उसका सुसमाचार और वचन तुम तक पहुँचेगा। परमेश्वर ने परिस्थितियों को निर्धारित कर दिया है, किसी निश्चित व्यक्ति या किसी निश्चित सन्दर्भ को निर्धारित कर दिया है जिसके माध्यम से तुम तक सुसमाचार पहुँचाया जाएगा, ताकि तुम परमेश्वर के वचन को सुन सको। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए पहले से ही सभी आवश्यक परिस्थितियों को तैयार कर दिया है ताकि, अनजाने में, तुम उसके सामने आ जाओ और परमेश्वर के परिवार में वापस लौट जाओ। परमेश्वर के कार्य करने के तरीके में प्रवेश करते हुए जिसे उसने तुम्हारे लिए कदम दर कदम तैयार किया है, तुम भी अनजाने में परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसके कदम दर कदम कार्य में प्रवेश करते हो। …विश्वास करने के भिन्न-भिन्न कारण और भिन्न-भिन्न तरीके हैं, परन्तु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि किस कारण से तुम उसनें विश्वास करने लगते हो, यह सब वास्तव में परमेश्वर के द्वारा व्यवस्थित और मार्गदर्शित होता है। सबसे पहले परमेश्‍वर अपने परिवार में तुम्‍हें लाने के लिए और तुम्‍हारा चयन करने के लिए कई तरीके इस्‍तेमाल करता है। यह वह अनुग्रह है जो परमेश्‍वर हर एक व्‍यक्ति को प्रदान करता है।

अब अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य के साथ, वह मनुष्य को यूँ ही अब और अनुग्रह एवं आशीषें प्रदान नहीं करता है जैसा कि उसने शुरुआत में किया था, न ही वह लोगों को आगे बढ़ने के लिए फुसलाता है। कार्य के इस चरण के दौरान, परमेश्वर के कार्य के सभी पहलुओं से मनुष्य ने क्या देखा जिसका उन्होंने अनुभव किया है? उन्होंने परमेश्वर के प्रेम को, परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना को देखा है। इस समय, परमेश्वर मनुष्य का और अधिक भरण पोषण करता है, उसे सहारा देता है, और प्रबुद्ध करता है और उसका मार्गदर्शन करता है, ताकि वे धीरे-धीरे उसके इरादों को जानने लगें, उसके बोले वचनों को और उस सत्य को जानने लगें जिसे वह मनुष्य को प्रदान करता है। जब मनुष्य कमज़ोर होंगे, जब वे हतोत्साहित होंगे, जब उनके पास कहीं और जाने के लिए कोई स्थान नहीं होगा, तब परमेश्वर उन्हें सान्त्वना, सलाह, एवं प्रोत्साहन देने के लिए अपने वचनों का उपयोग करेगा, ताकि छोटी कद-काठी वाले मनुष्य धीरे-धीरे अपनी सामर्थ्य को पा सकें, सकारात्मकता में उठ सकें और परमेश्वर के साथ सहयोग करने के लिए तैयार हो सकें। परन्तु जब मनुष्य परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं या उसका विरोध करते हैं, या वे अपनी स्वयं की भ्रष्टता को प्रकट करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें ताड़ना देने में और उन्हें अनुशासित करने में कोई दया नहीं दिखाएगा। मनुष्य की मूर्खता, अज्ञानता, दुर्बलता, एवं अपरिपक्वता के प्रति, हालाँकि, परमेश्वर सहिष्णुता एवं धैर्य दिखाएगा। इस तरीके से, उस समस्त कार्य के माध्यम से जिसे परमेश्वर मनुष्य के लिए करता है, मनुष्य धीरे-धीरे परिपक्व होता है, बड़ा होता है, और परमेश्वर के इरादों को जानने लगता है, कुछ सत्‍य जानने लगता है, सकारात्मक चीज़ें क्या हैं और नकारात्मक चीज़ें क्या हैं यह जानने लगता है, यह जानने लगता है कि बुराई क्या है और अंधकार क्या है। परमेश्वर हमेशा मनुष्य को ताड़ित एवं अनुशासित नहीं करता है, न ही वह हमेशा सहिष्णुता एवं धैर्य दिखाता है। बल्कि वह प्रत्येक व्यक्ति का, भिन्न-भिन्न तरीकों से, उनके विभिन्न चरणों में और उनके भिन्न-भिन्न स्‍तरों और क्षमता के अनुसार, भरण-पोषण करता है। वह मनुष्य के लिए अनेक चीज़ें और बड़ी क़ीमत पर करता है; मनुष्य इस कीमत या इन चीज़ों के बारे में जिन्हें परमेश्वर करता है कुछ भी महसूस नहीं करता है, फिर भी वह जो कुछ करता है उसे वास्तविकता में हर एक व्यक्ति पर कार्यान्वित किया जाता है। परमेश्वर का प्रेम सच्चा हैः परमेश्वर के अनुग्रह के माध्यम से मनुष्य एक के बाद एक आपदा से बचता है, जबकि मनुष्य की दुर्बलता के प्रति, परमेश्वर समय-समय पर अपनी सहिष्णुता दिखाता है। परमेश्वर का न्याय और उसकी ताड़ना लोगों को मानवजाति की भ्रष्टता और उनके भ्रष्ट शैतानी सार को धीरे-धीरे जानने देते हैं। जो कुछ परमेश्वर प्रदान करता है, मनुष्य को प्रबुद्ध करना एवं उसका मार्गदर्शन करना ये सब मानवजाति को सत्य के सार को और भी अधिक जानने देते हैं, और उत्तरोत्तर यह जानने देते हैं कि लोगों को किस चीज़ की आवश्यकता है, उन्हें कौन-सा मार्ग लेना चाहिए, वे किसके लिए जीते हैं, उनकी ज़िंदगी का मूल्य एवं अर्थ क्‍या है, और कैसे आगे के मार्ग पर चलना है। ये सभी कार्य जो परमेश्वर करता है वे उसके एकमात्र मूल उद्देश्य से अभिन्न हैं। तो यह उद्देश्य क्या है? क्यों परमेश्वर मनुष्य पर अपने कार्य को क्रियान्वित करने के लिए इन तरीकों का उपयोग करता है? वह क्या परिणाम प्राप्त करना चाहता है? दूसरे शब्दों में, वह मनुष्य में क्या देखना चाहता है और उनसे क्या प्राप्त करना चाहता है? परमेश्वर जो देखना चाहता है वह है कि मनुष्य के हृदय को पुनर्जीवित किया जा सके। ये तरीके जिन्हें वह मनुष्य पर कार्य करने के लिए उपयोग करता है मनुष्य के हृदय को निरन्तर जागृत करने, मनुष्य की आत्मा को जागृत करने, मनुष्य को यह जानने देने के लिए हैं कि वे कहाँ से आए हैं, कौन उनका मार्गदर्शन कर रहा है, उनकी सहायता कर रहा है, उनका भरण-पोषण कर रहा है, और किसने मनुष्य को अब तक जीवित रहने दिया है; वे मनुष्य को यह जानने देने के लिए हैं कि सृष्टिकर्ता कौन है, उन्हें किसकी आराधना करनी चाहिए, उन्हें किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, और मनुष्य को किस तरह से परमेश्वर के सामने आना चाहिए; मनुष्य के हृदय को धीरे-धीरे पुनर्जीवित करने के लिए उनका उपयोग किया जाता है, इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के हृदय को जान लेता है, परमेश्वर के हृदय को समझ लेता है, और मनुष्य को बचाने के उसके कार्य के पीछे की बड़ी देखभाल एवं विचार को समझ लेता है। जब मनुष्य के हृदय को पुनर्जीवित किया जाता है, तब वे एक पतित जीवन एवं भ्रष्ट स्वभाव को अब और जीने की इच्छा नहीं करते हैं, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर की संतुष्टि में सत्य की खोज करने की इच्छा करते हैं। जब मनुष्य के हृदय को जागृत कर दिया जाता है, तो वे शैतान के साथ स्पष्ट रूप से सम्बन्ध तोड़ने में सक्षम हो जाते हैं, शैतान के द्वारा अब और हानि नहीं पहुँचाए जाते है, उसके द्वारा अब और नियंत्रित नहीं होते या मूर्ख नहीं बनाए जाते हैं। इसके बजाय, मनुष्य परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर के कार्य में और उसके वचनों में सकारात्मक रूप से सहयोग कर सकता है, इस प्रकार परमेश्वर के भय और बुराई को त्यागने को प्राप्त करता है। यह परमेश्वर के कार्य का मूल उद्देश्य है।

— "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI" से उद्धृत

कई हज़ार साल बीत गए हैं, अभी भी मनुष्य परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए उजियाले और वायु का आनन्द उठाता है, स्वयं परमेश्वर के द्वारा फूँके गए श्वास के द्वारा साँस लेता है, अभी भी परमेश्वर के द्वारा सृजित किए गए फूलों, पक्षियों, मछलियों और कीड़े-मकौड़ों का आनन्द उठाता है और परमेश्वर के द्वारा प्रदान की गई सभी चीज़ों का मज़ा लेता है; दिन और रात अभी भी लगातार एक-दूसरे का स्थान ले रहे हैं; चार ऋतुएँ हमेशा की तरह बदल रही हैं; आसमान में उड़ने वाले कलहँस इस शीत ऋतु मे उड़ जाएँगे और अगले बसंत में फिर वापस भी आएँगे; जल की मछलियाँ नदियों और झीलों को—जो उनका घर है कभी भी नहीं छोड़ती, ज़मीन के कीटपतंगे (शलभ) गर्मी के दिनों में दिल खोलकर गाते हैं; घास के झींगुर शरद ऋतु के दौरान हवा के साथ समय-समय पर धीमे स्वर में गुनगुनाते हैं; कलहँस समूहों में इकट्ठे हो जाते हैं, जबकि बाज एकान्त में अकेले ही रहते हैं, शेरों के कुनबे शिकार करके अपने आपको बनाए रखते हैं; बारहसिंघा घास और फूलों से दूर नहीं जाते…। सभी चीज़ों के मध्य हर प्रकार के जीवधारी चले जाते हैं फिर आ जाते हैं और फिर चले जाते हैं, पलक झपकते ही लाखों परिवर्तन होते हैं—परन्तु जो बदलता नहीं है वह है उनका सहज ज्ञान और ज़िन्‍दा रहने के नियम। वे परमेश्वर के प्रयोजन और परमेश्वर के पालन-पोषण के अधीन जीते हैं, कोई उनके सहज ज्ञान को बदल नहीं सकता है, न ही कोई उनके ज़िन्दा रहने के नियमों में बाधा डाल सकता है। यद्यपि मानवजाति को, जो सभी चीज़ों के बीच में जीवन बिताती है, शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, फिर भी मनुष्य परमेश्वर के द्वारा बनाए गए जल, परमेश्वर द्वारा बनाई गई वायु, परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीज़ों को ग्रहण न करने का निर्णय नहीं ले सकता है, मनुष्य फिर भी जीवित रहता है और परमेश्वर द्वारा बनाए गए इस समयकाल में बढ़ता रहता है। मनुष्य का अन्तःज्ञान नहीं बदला है। मनुष्य अभी भी देखने के लिए आँखों पर, सुनने के लिए कानों पर, सोचने के लिए अपने मस्तिष्क पर, समझने के लिए अपने हृदय पर, चलने के लिए अपने पैरों पर, काम करने के लिए अपने हाथों इत्यादि पर निर्भर है; परमेश्वर ने सब प्रकार का सहज ज्ञान मनुष्य को दिया है जिससे वह इस बात को स्वीकार कर सके कि परमेश्वर का प्रयोजन अपरिवर्तनीय बना रहता है, वे योग्यताएँ जिनके द्वारा मनुष्य परमेश्वर के साथ सहयोग करता है कभी भी नहीं बदली हैं, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की मानवजाति की योग्यता नहीं बदली है, मानवजाति की आध्यात्मिक ज़रूरत नहीं बदली है, सृष्टिकर्ता के द्वारा उद्धार पाने हेतु मानवजाति की लालसा नहीं बदली है। अपनी उत्पत्ति का पता लगाने की मानवजाति की इच्छा नहीं बदली है, सृष्टिकर्ता द्वारा बचाए जाने की मानवजाति की इच्छा नहीं बदली है। मनुष्य की वर्तमान परिस्थितियाँ ऐसी ही हैं, जो परमेश्वर के अधिकार के अधीन रहता है और जिसने शैतान के द्वारा किए गए रक्तरंजित विध्वंस को सहा है। यद्यपि शैतान ने मानवजाति पर अत्याचार किये हैं, और वह अब सृष्टि के प्रारम्भ के आदम और हव्वा नहीं रही, बल्कि ऐसी चीज़ों से भर गई है जो परमेश्वर के विरूद्ध हैं, जैसे ज्ञान, कल्पनाएँ, विचार, इत्यादि और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से भर गई है, इस कारण परमेश्वर की दृष्टि में मानवजाति अभी भी वही मानवजाति है जिसे उसने सृजित किया था। परमेश्वर अभी भी मानवजाति पर शासन करता और उसकी योजना बनाता है, मानवजाति परमेश्वर के द्वारा व्यवस्थित पथक्रम के अनुसार अभी भी जीवन बिताती है, इस प्रकार परमेश्वर की दृष्टि में, मानवजाति, जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, महज गंद में लिपटी हुई, गुड़गुड़ाते हुए पेट के साथ, ऐसी प्रतिक्रियाओं के साथ जो थोड़ी धीमी हैं, ऐसी यादों के साथ जो इतनी अच्छी नहीं हैं जितना वे हुआ करती थीं और थोड़ी प्राचीन हैं—परन्तु मनुष्य के सारे कार्य और सहज ज्ञान पूरी तरह सुरक्षित है। यह वह मानवजाति है जिसे परमेश्वर बचाने की इच्छा करता है। इस मानवजाति को सृष्टिकर्ता की पुकार सुननी है, सृष्टिकर्ता की आवाज़ को सुनना है, वह खड़ी होकर इस आवाज़ के स्रोत का पता लगाने के लिए दौड़ेगी। इस मानवजाति को सृष्टिकर्ता के रूप को देखना है और वह अन्य सभी चीज़ों की परवाह नहीं करेगी, सब कुछ छोड़ देगी, जिससे अपने आपको परमेश्वर के प्रति समर्पित कर सके और अपने जीवन को भी उसके लिए दे देगी। जब मानवजाति का हृदय सृष्टिकर्ता के हृदय में महसूस किए गए वचनों को समझेगा तो मानवजाति शैतान को ठुकराकर सृष्टिकर्ता की ओर आ जाएगी; जब मानवजाति अपने शरीर से गन्दगी को पूरी तरह धो देगी, एक बार फिर से सृष्टिकर्ता के प्रयोजन और पालन पोषण को प्राप्त करेगी, तब मानवजाति की स्मरण शक्ति पुनः वापस आ जाएगी और इस बार मानवजाति सचमुच में सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में वापस आ चुकी होगी।

— "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I" से उद्धृत

स्रोत: यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए

प्रभु यीशु का स्वागत करें

प्रभु यीशु ने कहा, “आधी रात को धूम मची : ‘देखो, दूल्हा आ रहा है! उससे भेंट करने के लिये चलो।’ (मत्ती 25:6) प्रकाशितवाक्य की भविष्यवाणी, “देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर

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