तुम में से प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करके नए सिरे से अपने जीवन की जांच करके यह देख सकता है कि क्या परमेश्वर को खोजते समय, तुम सच्चे रूप में समझ पाए हो, सच्चे रूप में पूर्णत: समझ गये हो, और सच्चे रूप में परमेश्वर को जाने हो, और यह कि तुम सच्चे रूप में जान गये हो कि, विभिन्न मनुष्यों के प्रति परमेश्वर का मनोभाव क्या है, और यह कि तुम वास्तव में यह समझ गये हो कि परमेश्वर तुम पर क्या कार्य कर रहा है और परमेश्वर कैसे उसके प्रत्येक कार्य को व्यक्त करता है। यह परमेश्वर जो तुम्हारी ओर है, तुम्हारे विकास को मार्गदर्शन दे रहा है, तुम्हारी नियति को बना रहा है और तुम्हारी सभी आवश्यकताओं को पूरा कर रहा है—अंतिम विश्लेषण में तुम क्या सोचते और समझते हो और तुम वास्तव में कितना उसके बारे में जानते हो? क्या तुम जानते हो कि प्रत्येक दिन वह तुम्हारे लिए कौन से कार्य करता है? क्या तुम जानते हो कि उसके प्रत्येक कार्य के पीछे क्या नियम और उद्देश्य होते हैं? क्या तुम जानते हो कि वह कैसे तुम्हारा मार्गदर्शन करता है? क्या तुम जानते हो कि किन स्रोतों के द्वारा वह तुम्हारी सभी ज़रुरतों को पूरा करता है? क्या तुम जानते हो कि किन तरीकों से वह तुम्हारी अगुवाई करता है? क्या तुम जानते हो कि वह तुमसे किस बात की अपेक्षा रखता है और तुम में क्या देखना चाहता है? क्या तुम उसके दृष्टिकोण को जानते हो जिस प्रकार से वह तुम्हारे विभिन्न तरह के व्यवहार को लेता है? क्या तुम यह जानते हो कि क्या तुम उसके एक पसंदीदा व्यक्ति हो? क्या तुम उसके आनन्द, क्रोध, दुख और प्रसन्नता के पीछे छिपे विचारों और उद्देश्यों और उसके सार को जानते हो? अंत में, क्या तुम जानते हो कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो वह किस प्रकार का परमेश्वर है? क्या ये ऐसे कुछ प्रश्न हो जिनके बारे में तुमने पहले कभी भी न तो समझा और न उन पर विचार किया? परमेश्वर पर अपने विश्वास का अनुगमन करते हुए क्या तुमने कभी वास्तविक मूल्यांकन और परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करके उसके प्रति अपनी सभी ग़लतफहमियों को दूर किया है? क्या तुमने कभी भी परमेश्वर का अनुशासन और ताड़ना प्राप्त करने के बाद, सच्चा समर्पण और ध्यान दिया है? क्या तुमने परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के मध्य मनुष्य की विद्रोही और शैतानी प्रकृति को जान पाए हो और परमेश्वर की पवित्रता को थोड़ा सा भी प्राप्त किया है? क्या तुमने कभी भी परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और प्रकाशन के अधीन अपने जीवन को एक नए प्रकार से देखना प्रारम्भ किया? क्या तुमने कभी परमेश्वर के द्वारा भेजी हुई परख के मध्य मनुष्यों के अपराध पर उसकी असहिष्णुता को महसूस किया है, साथ ही साथ वह तुमसे क्या अपेक्षा रखता है और वह तुम्हें कैसे बचा रहा है, उसे महसूस किया है? यदि तुम यह नहीं जानते कि परमेश्वर को गलत समझना क्या है या यह कि इन ग़लतफहमियों को ठीक कैसे किया जा सकता है, तो यह कहा जा सकता है कि तुम परमेश्वर के साथ कभी भी वास्तविक सहभागिता में नहीं आए हो और परमेश्वर को कभी जाना ही नहीं, या कहा जा सकता है कि तुमने उसे कभी भी समझने की इच्छा तक नहीं की। यदि तुम परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना को नहीं जानते हो, तो निश्चित ही तुमने समर्पण और परवाह को जाना ही नहीं, या फिर तुमने कभी परमेश्वर के प्रति अपने आपको वास्तव में समर्पित नहीं किया और परमेश्वर की परवाह तक नहीं की। यदि तुमने कभी भी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को अनुभव नहीं किया है तो निश्चित तौर पर तुम उसकी पवित्रता को नहीं जानते हो और तुम इतना भी नहीं समझ पाओगे कि मनुष्यों का परमेश्वर के प्रति विद्रोह क्या होता है। यदि जीवन के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण ठीक नहीं है या जीवन में सही उद्देश्य नहीं है, और अपने भविष्य के प्रति दुविधा और अनिर्णय की स्थिति में हो, यहां तक कि आगे बढ़ने में भी हिचकिचाहट की स्थिति में हो, तो यह स्पष्ट है कि तुमने परमेश्वर के प्रकाशन और मार्गदर्शन को कभी भी वास्तव में महसूस ही नहीं किया है और यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हें कभी भी परमेश्वर के वचनों का पोषण प्राप्त नहीं हुआ है। यदि तुम अभी तक परमेश्वर की परीक्षा से नहीं गुज़रे हो तो तुम यह नहीं जान पाओगे कि मनुष्य के अपराधों के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता क्या है और न ही यह समझ सकोगे कि आखिरकार परमेश्वर तुमसे चाहता क्या है, और इसकी समझ तो और भी कम होगी कि आखिरकार मनुष्य के प्रबंधन और उसके बचाव का उसका क्या कार्य है। इससे कुछ भी फ़र्क नही पड़ता कि एक व्यक्ति कितने वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहा है, यदि उसने कभी भी उसके वचन का अनुभव या उसमें कुछ भी समझ हासिल नहीं की है, फिर निश्चित तौर पर वह उद्धार के मार्ग पर नहीं चल रहा है, और परमेश्वर पर उसका विश्वास किसी वास्तविक तत्व पर आधारित नहीं है, उसका परमेश्वर के प्रति ज्ञान भी शून्य है और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा क्या होती है इसका उसे बिल्कुल भी अनुमान नहीं है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" से उद्धृत
परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का ज़रूरी रास्ता
ईश्वर का भय मानने का अर्थ नहीं अनजान डर, बच निकलना, मूर्ति पूजन या अंधविश्वास। बल्कि, ईश्वर का भय मानने का अर्थ है प्रशंसा, विश्वास, सम्मान, समझ, देखभाल, आज्ञापालन करना। ये है पवित्रीकरण, प्रेम, पूर्ण आराधना, प्रतिदान, समर्पण बिन शिकायत के।
बिन परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के, मानव नहीं कर सकता विश्वास या प्रशंसा, न समझ सकता न परवाह या आज्ञापालन कर सकता है, पर भर जाएगा ख़ौफ़ और बेचैनी से, भरा होगा संदेह, ग़लतफ़हमी से, भागने की प्रवृत्ति और टालना चाहने से। बिन परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के पवित्रीकरण और प्रतिदान नहीं हो सकता, और मानवता नहीं कर सकेगी आराधना और समर्पण जो कि है सच्चा, सिर्फ़ अंधा मूर्ति-पूजन पूर्ण अंधविश्वास से ज़्यादा कुछ भी नहीं।
परमेश्वर के सच्चे ज्ञान से ही, उसके मार्ग पर चले, भय माने, बदी से दूर रहे इंसान। उसके बिन, वो जो भी करेगा, भरा होगा विद्रोह और अवज्ञा से निंदा के आरोपों से, उसके बारे में ग़लत राय से, सत्य और ईश्वर के वचनों के सही अर्थ के ख़िलाफ़ दुष्ट आचरण से। लेकिन ईश्वर में सच्चे विश्वास के साथ, वो जानेगा कैसे अनुगमन किया जाए ईश्वर का। केवल तभी मानव समझ पाएगा, परमेश्वर को, उसकी परवाह करना शुरू करेगा।
परमेश्वर की सच्ची परवाह के संग ही मानव सच्ची आज्ञाकारिता पा सकता है। और आज्ञाकारिता से प्रवाहित होगा परमेश्वर के लिए पवित्रीकरण, और ऐसे असली पवित्रीकरण से, पा सकता है मानव प्रतिदान जो बेशर्त हो। सिर्फ़ इस तरह मानव ईश्वर का सार, स्वभाव, और वह कौन है जान सकता है। जब वो सर्जक को जानेगा, तब वास्तविक आराधना और समर्पण उमड़ेंगे। सिर्फ़ जब ये मौजूद हैं तभी मानव सच में दूर हो सकता है अपने बुरे मार्गों से।
और ये चीज़ें "ईश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने" की पूरी प्रक्रिया का गठन करती हैं और अपनी सम्पूर्णता में "ईश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने" की विषयवस्तु भी हैं। ये मार्ग है जिसपर चलने की ज़रूरत है वो बनने के लिए जो ईश्वर का भय मानता और बदी से दूर रहता है।
"मेमने का अनुसरण करना और नए गीत गाना" से
परमेश्वर के दैनिक वचन खण्ड, आपके साथ परमेश्वर के नवीनतम कथनों को साझा करता है और परमेश्वर को बेहतर तरीके से जानने में ईसाइयों की मदद करता हैI
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