पहाड़ी उपदेश प्रभु यीशु के दृष्टान्त आज्ञाएँ

1. पहाड़ी उपदेश

    1) धन्य वचन (मत्ती 5:3-12)

    2) नमक और ज्योति (मत्ती 5:13-16)

    3) व्यवस्था (मत्ती 5:17-20)

    4) क्रोध (मत्ती 5:21-26)

    5) व्यभिचार (मत्ती 5:27-30)

    6) तलाक (मत्ती 5:31-32)

    7) मन्नतें (मत्ती 5:33-37)

    8) आँख के बदले आँख (मत्ती 5:38-42)

    9) अपने शत्रुओं से प्रेम करो (मत्ती 5:43-48)

   10) देने के विषय निर्देश (मत्ती 6:1-4)

    11) प्रार्थना (मत्ती 6:5-8)

2. प्रभु यीशु के दृष्टान्त

    1) बीज बोनेवाले का दृष्टान्त (मत्ती 13:1-9)

    2) जंगली पौधों का दृष्टान्त (मत्ती 13:24-30)

    3) राई के दाने का दृष्टान्त (मत्ती 13:31-32)

    4) खमीर का दृष्टान्त (मत्ती 13:33)

    5) जंगली बीजों के दृष्टान्त की व्याख्या (मत्ती 13:36-43)

    6) अनमोल धन का दृष्टान्त (मत्ती1 3:44)

    7) अनमोल मोती का दृष्टान्त (मत्ती1 3:45-46)

    8) जाल का दृष्टान्त (मत्ती 13:47-50)

3. आज्ञाएँ

    (मत्ती 22:37-39) उसने उससे कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरा भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।

    आओ सब से पहले “पहाड़ी उपदेश” के प्रत्येक भाग को देखें। यह सब किस से सम्बन्धित हैं? ऐसा निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि ये सभी व्यवस्था के युग की रीति विधियों से अधिक उन्नत, अधिक ठोस, और लोगों के जीवन के अत्यंत निकट हैं। आधुनिक शब्दावलियों में कहा जाए, तो यह लोगों के व्यावहारिक अभ्यास से ज़्यादा सम्बद्ध है।

    आओ हम निम्नलिखित के विशिष्ट सन्दर्भ को पढ़ें: तुम्हें धन्य वचनों को किस प्रकार समझना चाहिए? तुन्हें व्यवस्था के बारे में क्या जानना चाहिए? क्रोध को किस प्रकार परिभाषित करना चाहिए? व्याभिचारियों से कैसे निपटना चाहिए? तलाक के विषय में क्या कहा गया है, और उसके विषय में किस प्रकार के नियम हैं, और किसे तलाक दिया जा सकता है और किसे तलाक नहीं दिया जा सकता है? मन्नतों, आँख के बदले आँख, अपने शत्रुओं से प्रेम करो, देने के लिए निर्देश, और इत्यादि के विषय में क्या कहा जा सकता है। यह सब कुछ मानव जाति के द्वारा परमेश्वर पर विश्वास करने और परमेश्वर का अनुसरण करने के अभ्यास के प्रत्येक पहलू से सम्बन्धित है। इनमें से कुछ अभ्यास आज भी लागू हैं, परन्तु वे लोगों की वर्तमान जरूरतों के अपेक्षा मूल सिद्धांतों से ज़्यादा जुड़ी हुई हैं। वे बिल्कुल प्रारम्भिक सच्चाईयाँ हैं जिन का सामना लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हुए करते हैं। उस समय से प्रभु यीशु ने काम करना प्रारम्भ कर दिया था, वह पहले से ही मनुष्यों के जीवन स्वभाव पर काम शुरू करनेवाला था, परन्तु वह व्यवस्था की नींव पर आधारित था। क्या इन विषयों के ऊपर आधारित नियमों और कथनों का इस सच के साथ कुछ लेना देना था? हाँ, वास्तव में था? पिछली सभी रीति विधियाँ, सिद्धांत, और अनुग्रह के युग के सन्देश परमेश्वर के स्वभाव और जो उसके पास है तथा जो वह है उस से, और हाँ सत्य से भी सम्बन्धित थे। इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर ने क्या प्रकट किया, किस रीति से प्रकट किया, या किस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया, क्योंकि उसकी नींव, उसका उद्गम, और उसका प्रारम्भिक बिन्दु सभी उसके स्वभाव के सिद्धांतों और जो उसके पास है तथा जो वह है उस पर आधारित हैं। इसमें कोई त्रुटि नहीं है। इस प्रकार यद्यपि जिन चीज़ों को उसने कहा था अब थोड़ी हल्की दिखाई देती हैं,फिर भी तुम नहीं कह सकते कि वे सत्य नहीं हैं, क्योंकि वे परमेश्वर की इच्छा को सन्तुष्ट करने और उन के जीवन स्वभाव में एक परिवर्तन लाने के लिए ऐसी चीज़ें थीं जो अनुग्रह के युग में लोगों के लिए अतिमहत्वपूर्ण था। क्या तुम ऐसा कह सकते हो कि पहाड़ी उपदेश की कोई भी बात सत्य के समानान्तर नहीं है? तुम नहीं कह सकते हो! इन में से प्रत्येक एक सच्चाई है क्योंकि वे सभी मानव जाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं; वे सभी परमेश्वर के द्वारा दिए गए सिद्धांत और अवसर हैं कि एक व्यक्ति को किस प्रकार व्यवहार करना है, और वे परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाते हैं। फिर भी, उस समय उनके जीवन की बढ़ौतरी के स्तर के आधार पर, वे केवल इन चीज़ों को ही स्वीकार करने और समझने के काबिल थे। क्योंकि अभी तक मानव जाति के पापों का समाधान नहीं किया गया था, प्रभु यीशु केवल इस प्रकार के दायरे के भीतर इन वचनों को जारी कर सकता था, और वह केवल ऐसी साधारण शिक्षाओं का उपयोग कर सकता थाजिस सेलोगों को उस समय के बारे में बताए कि उन्हें किस प्रकार कार्य करना चाहिए, उन्हें क्या करना चाहिए, उन्हें किन सिद्धांतों और दायरे के भीतर चीज़ों को करना चाहिए, और उन्हें किस प्रकार परमेश्वर पर विश्वास करना है और उसकी अपेक्षाओं में खरा उतरना है। इन सब को उस समय मानव जाति की स्थिति के आधार पर निर्धारित किया गया था। व्यवस्था के अधीन जीवन जीनेवाले लोगों के लिए इन शिक्षाओं को ग्रहण करना आसान नहीं था, इस प्रकार जो प्रभु यीशु ने शिक्षा दी थी उसे इसी क्षेत्र के भीतर बने रहना था।

    आगे, आओ “प्रभु यीशु के दृष्टान्तों” पर एक नज़र देखें

    पहला बीज बोने वाले का दृष्टान्त है। यह वास्तव में एक रूचिकर दृष्टान्त हैः बीज बोना लोगों के जीवनों में एक सामान्य घटना है। दूसरा जंगली बीजों का दृष्टान्त है। जहाँ तक जंगली बीजों की बात है, जिस किसी ने भी फसल लगाई है जब वह बढ़ती है तो वह जान जाएगा। तीसरा राई के दाने का दृष्टान्त है। तुम सभी जानते हो कि राई का दाना क्या होता है, सही है? यदि तुम नहीं जानते हो, तो तुम बाइबल में एक दृष्टि डाल सकते हो। चौथा, ख़मीर का दृष्टान्त, अधिकतर लोग जानते हैं कि खमीर को किण्वन के लिए प्रयोग किया जाता है; यह कुछ ऐसा है जिसे लोग अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं। नीचे दिए गए सभी दृष्टान्त, जिस में छठा अनमोल धन का दृष्टान्त, सातवाँ अनमोल मोती का दृष्टान्त, और आठवाँ जाल का दृष्टान्त भी शामिल है, उन सभी को लोगों के जीवन से लिया गया है; वे सभी लोगों के वास्तविक जीवनों से लिए गए हैं। ये दृष्टान्त किस प्रकार की तस्वीर चित्रित करते हैं? यह एक तस्वीर है जिस में परमेश्वर एक सामान्य व्यक्ति बन गया और सामान्य जीवन की भाषा का उपयोग करते हुए, मनुष्यों से बात करने के लिए मानवीय भाषा का प्रयोग करते हुए और जो कुछ उन्हें जरूरत है उन्हें प्रदान करने के लिए मनुष्य के साथ साथ रहने लग गया। जब परमेश्वर देहधारी हुआ और लम्बे समय तक मनुष्यों के बीच रहा, तो लोगों की विभिन्न जीवन शैलियों का अनुभव करने और उनका साक्ष्य बनने के बाद, ये अनुभव उसकी ईश्वरीय भाषा को मानवीय भाषा में रूपान्तरित करने के लिए उसकी पाठ्य पुस्तकें बन गईं। हाँ वास्तव में, ये चीज़ें जो उसने जीवन में देखा और सुना उसने मनुष्य के पुत्र के मानवीय अनुभव में संवृद्धि की। जब वह चाहता था कि लोग कुछ सच्चाइयों को समझें, तो उन्हें परमेश्वर की कुछ सच्चाइयों को समझाने के लिए और लोगों को परमेश्वर की इच्छा और मानव जाति के प्रति उसकी अपेक्षाओं को बताने के लिए वह ऊपर दी गईं चीज़ों के समान दृष्टान्त का उपयोग कर सकता था। ये दृष्टान्त लोगों के ज़िन्दगियों से सम्बन्धित थे; और ऐसा एक भी दृष्टान्त नहीं था जो मनुष्य के जीवनों से अछूता था। जब प्रभु यीशु मानव जाति के साथ रहता था, उसने किसानों को अपने खेतों में देखरेख करते हुए देखा था, वह जानता था कि जंगली पौधे क्या है और खमीर उठना क्या है; वह समझ गया कि मनुष्य अनमोल धन को पसंद करते हैं, इस प्रकार उसने अनमोल धन और अनमोल मोती के अलंकार का प्रयोग किया; और उसने मछुवारों को लगातार जाल फैलाते हुए भी देखा था; और इत्यादि। प्रभु यीशु ने मानव जाति की ज़िन्दगियों में इन गतिविधियों को देखा था; और उसने उस प्रकार के जीवन का अनुभव भी किया था। वह किसी अन्य मनुष्य के समान एक साधारण व्यक्ति था, जो मनुष्यों के तीन वक्त के भोजन और दिनचर्या का अनुभव कर रहा था। उसने व्यक्तिगत रूप से एक औसत इंसान के जीवन का अनुभव किया था, और उसने दूसरों की ज़िन्दगियों को भी देखा था। जब उसने यह सब कुछ देखा और व्यक्तिगत रूप से इन का अनुभव किया, तब उसने यह नहीं सोचा कि किस प्रकार एक अच्छा जीवन पाया जाए या वह किस प्रकार और अधिक स्वतन्त्रता, तथा अधिक आराम से जीवन बिता सकता है। जब वह सच्चे मानवीय जीवन का अनुभव ले रहा था, प्रभु यीशु ने लोगों के जीवन में कठिन शारीरिक दुःख देखा, और उसने शैतान की भ्रष्टता के अधीन लोगों के कठिन शारीरिक क्लेश, अभागेपन, और उनकी उदासी को देखा, कि वे शैतान की अधीनता में जी रहे थे, और पाप में जी रहे थे। वह व्यक्तिगत रूप से मानवीय जीवन का अनुभव ले रहा था, उसने यह भी महसूस किया कि जो लोग भ्रष्टता के बीच जीवन बिता रहे थे वे लोग कितने असहाय थे, उसने उन लोगों की दुर्दशा को देखा और अनुभव किया जो पाप में जीवन बिताते थे, जो शैतान के द्वारा, अर्थात् बुराई के द्वारा लाए गए अत्याचार में कहीं खो गए थे। जब प्रभु यीशु ने इन चीज़ों को देखा, तो क्या उसने उन्हें अपनी दिव्यता में देखा था या अपनी मानवता में? उसकी मानवता सचमुच में अस्तित्व में थी—यह बिल्कुल जीवन्त थी—वह यह सब कुछ अनुभव कर सकता था और देख सकता था, और वास्तव में उसने इसे उसके सार और उसकी दिव्यता में भी देखा। स्वयं मसीह अर्थात् मनुष्य प्रभु यीशु ने इसे देखा, और वह सब कुछ जो उसने देखा था उस से उसने उस कार्य के महत्व और आवश्यकता का एहसास किया जिसे उसने इस समय अपनी देह में शुरू किया था। यद्यपि वह स्वयं जानता था कि वह उत्तरदायित्व जिसे उसे लेने की जरूरत थी कितना विशाल है, और वह दर्द जिस का वह सामना करेगा कितना बेरहम होगा, और जब उसने पाप में जी रहे मानव जाति की असहाय स्थिति को देखा, जब उसने उनकी ज़िन्दगियों में अभागेपन और व्यवस्था के अधीन उनके कमज़ोर संघर्ष को देखा, तो उसने और अधिक दर्द का अनुभव किया, और मानव जाति को पाप से बचाने के लिए और भी ज़्यादा चिन्तित हो गया था। इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना करेगा या किस प्रकार का दर्द सहेगा, क्योंकि वह पाप में जी रहे मानव जाति को बचाने के लिए और अधिक दृढ़ निश्चयी हो गया था। इस प्रक्रिया के दौरान, क्या तुम कह सकते हो कि प्रभु यीशु ने उस कार्य को और अधिक स्पष्टता से समझना प्रारम्भ कर दिया था जिसे उसे करने की आवश्यकता थी और जो उसे सौंपा गया था। और वह उस कार्य को पूर्ण करने के लिए और भी अधिक उत्सुक हो गया जिसे उसे लेना था—मानव जाति के सभी पापों को लेने के लिए, मानव जाति के लिए प्रायश्चित करने के लिए ताकि वे आगे से पाप में ना जीएँ और परमेश्वर पापबलि के कारण मनुष्य के पापों को भुला देगा, और इस से उसे स्वीकृति मिलेगी कि वह मानव जाति को बचाने के लिए अपने कार्य को आगे बढ़ा सके। ऐसा कहा जा सकता है कि प्रभु यीशु अपने हृदय में, मानव जाति के लिए अपने आप को न्यौछावर करने, और अपने आप को बलिदान करने का इच्छुक था। वह एक पापबलि के रूप में कार्य करने और सूली पर चढ़ने के लिए भी इच्छुक था, और वह इस कार्य को पूर्ण करने के लिए उत्सुक था। जब उसने मनुष्यों के जीवन की दयनीय दशा को देखा, तो वह जितना जल्दी हो सके अपने लक्ष्य को पूरा करना चाहता था, वह भी बिना किसी मिनट और सेकण्ड की देरी के। जब उसे ऐसी अति शीघ्रता का एहसास हुआ, तब वह यह नहीं सोच रहा था कि उसका दर्द कितना भयानक होगा, और ना ही उसने तनिक भी यह सोचा कि उसे कितना अपमान सहना होगा—उसने बस अपने हृदय में इस दृढ़ इच्छा शक्ति को थामे रखाः जब तक वह अपने को भेंट चढ़ाए रहेगा, जब तक उसे पापबलि के रूप में सूली पर लटकाकर रखा जाएगा, परमेश्वर की इच्छा की इच्छा को पूरा किया जाएगा और वह अपने नए कार्य की शुरूआत कर पाएगा। पाप में गुज़र रही मानवजाति की ज़िन्दगियाँ, और पाप में बने रहने की उसकी स्थिति पूर्णत: बदल जाएगी। उसकी दृढ़ता और जो उसने करने का निर्णय लिया था वे मानव जाति को बचाने से सम्बन्धित थे, और उसके पास केवल एक उद्देश्य थाः परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना, ताकि वह अपने कार्य के अगले चरण की सफलतापूर्वक शुरूआत कर सके। यह सब कुछ उस समय प्रभु यीशु के मन में था।

    देह में जीवन बिताते हुए, देहधारी परमेश्वर ने सामान्य मानवता को धारण किया; उसके अंदर एक सामान्य व्यक्ति की भावनाएँ और तर्क शक्ति थी। वह जानता था कि पाप क्या है, और दर्द क्या है, और जब उसने मानवजाति को इस प्रकार के जीवन में देखा, तो उसने गहराई से महसूस किया कि लोगों को मात्र कुछ शिक्षाएँ देने से, और उन्हें कुछ प्रदान करने या उन्हें कुछ सिखाने से उन्हें पाप से बाहर आने में अगुवाई नही मिल सकती है। और ना ही उनसे कुछ आज्ञाओं का पालन करवाने से उन्हें पापों से छुटकारा दिया जा सकता था—केवल मनुष्यों के पापों को लेकर और पापमय देह की समानता में आकर ही वह इसे मानव—जाति की स्वतन्त्रता में बदल सकता था, और इसे मनुष्यों के लिए परमेश्वर की क्षमा में बदल सकता था। जब प्रभु यीशु ने मनुष्यों के ज़िन्दगियों में पाप का अनुभव किया और उसके बाद उसने देखा, कि उसके हृदय में एक प्रबल इच्छा प्रकट हुई है—कि मनुष्यों को अनुमति दी जाए कि वे अपनी ज़िन्दगियों को पाप के संघर्ष से छुड़ा सकें। इस इच्छा से उसने और भी अधिक यह महसूस किया कि उसे सूली पर चढ़ना होगा और जितना जल्दी हो सके उनके पापों को लेना होगा। लोगों के साथ रहने और पाप में उनके जीवन की दुर्दशा को देखने, सुनने और महसूस करने के बाद, उस समय ये प्रभु यीशु के विचार थे। यह कि देहधारी परमेश्वर के पास मानव जाति के लिए इस प्रकार की इच्छा हो सकती थी, कि वह इस प्रकार के स्वभाव को प्रकट और प्रदर्शित कर सकता था—क्या यह कुछ ऐसा है जो एक औसत इंसान के पास हो सकता है? इस प्रकार के वातावरण में रहते हुए एक औसत इंसान क्या देखेगा? वे क्या सोचेंगे? यदि एक औसत इंसान ने इन सब का सामना किया होता, तो क्या वे समस्याओं को ऊँचे दृष्टिकोण से देख पाते? बिल्कुल नहीं! यद्यपि देहधारी परमेश्वर का रूप बिल्कुल मनुष्य के समान है, फिर भी वह मानवीय ज्ञान को सीखता है और मानवीय भाषा में बोलता है और कई बार अपनी युक्तियों को मानव जाति के माध्यमों या प्रकटीकरण के द्वारा प्रकट भी करता है, और जिस तरह से वह मनुष्यों, एवं चीज़ों के सार को देखता है, और जिस तरह भ्रष्ट लोग मानव जाति और चीज़ों के सार को देखते हैं वे बिल्कुल एक समान नहीं हैं। उस का दृष्टिकोण और वह ऊँचाई जिस पर वह खड़ा रहता है वह कुछ ऐसा है जिसे एक भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर सत्य है, और वह देह जो वह पहने हुए है वह परमेश्वर के सार को धारण किए हुए है, और उसके विचार और जो उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया गया है वे भी सत्य हैं। भ्रष्ट लोगों के लिए, जो कुछ वह देह में व्यक्त करता है वे सत्य, और जीवन के प्रावधान हैं। ये प्रावधान केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं हैं, परन्तु पूरी मानव जाति के लिए है। किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति के लिए, उसके हृदय में केवल थोड़े से ही लोग हैं जो उस से जुड़े होते हैं। केवल कुछ ही ऐसे लोग हैं जिन के बारे में वह चिन्ता करता है, या जिन की वह परवाह करता है। जब विपत्ति सामने पर होती है, तो वह सब से पहले अपने बच्चों, जीवन साथी, या माता पिता के बारे में सोचता है, और वह व्यक्ति जो मानव जाति से थोड़ा और प्रेम करता है, कम से कम कुछ रिश्तेदारों या एक अच्छे मित्र के बारे में सोचता है; क्या वह इस से अधिक सोचता है? कभी भी नहीं! क्योंकि सभी घटनाओं के बावजूद मनुष्य मनुष्य है, और वह एक इंसान के दृष्टिकोण और ऊँचाई से ही सभी चीज़ों को देख सकता है। मगर देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर का देहधारी शरीर कितना सामान्य, कितना साधारण, कितना दीन है, या लोग उसे कितनी नीची दृष्टि से देखते हैं, मानवजाति के प्रति उसके विचार और उसकी मनोवृत्तियाँ ऐसी चीज़ें है जिन्हें कोई भी मनुष्य धारण नहीं कर सकता है, और ना ही उसका अनुकरण कर सकता है। वह हमेशा ईश्वरीय दृष्टिकोण, और सृष्टिकर्ता के रूप में अपने पद की ऊँचाई से मानव जाति का अवलोकन करता रहेगा। वह हमेशा परमेश्वर के सार और मनःस्थिति से मानव जाति को देखता रहेगा। वह एक औसतइंसान की ऊँचाई, और एक भ्रष्ट इंसान के दृष्टिकोण से मानव जाति को बिल्कुल नहीं देख सकता है। जब लोग मानव जाति को देखते हैं, तो वे मानवीय दृष्टि से देखते हैं, और वे मानवीय ज्ञान और मानवीय नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों को एक पैमाने की तरह प्रयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; यह उस दायरे के भीतर है जिसे भ्रष्ट लोग प्राप्त कर सकते हैं। जब परमेश्वर मानव जाति को देखता है, वह ईश्वरीय दर्शन के साथ देखता है, और अपने सार और जो उसके पास है तथा जो वह है उसे नाप के रूप में लेता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते हैं, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और दूषित मनुष्य बिल्कुल अलग हैं। इस अन्तर को मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न भिन्न सार तत्वों के द्वारा निर्धारित किया जाता है, और ये भिन्न भिन्न सार ही हैं जो उन की पहचानों और पदस्थितियों को निर्धारित करते हैं साथ ही साथ उस दृष्टिकोण और ऊँचाई को भी जिस से वे चीज़ों को देखते हैं। क्या तुम लोग प्रभु यीशु में स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति और प्रकाशन को देखते हो? तुम लोग कह सकते हो कि जो प्रभु यीशु ने किया और कहा था वह उसकी सेवकाई से और परमेश्वर के स्वयं के प्रबन्धन कार्य से संबंधित था, कि यह सब परमेश्वर के सार की अभिव्यक्ति और प्रकाशन था। यद्यपि वह मानवीय रूप में प्रकट हुआ था, किन्तु उसके ईश्वरीय सार और उसकी ईश्वरीयता के प्रकाशन को नकारा नहीं जा सकता है। यह मानवीय प्रकटीकरण क्या वास्तव में मानवता का प्रकटीकरण था? यह मानवीय प्रकटीकरण अपने खास सार के कारण दूषित लोगों के मानवीय प्रकटीकरण से बिल्कुल अलग था। प्रभु यीशु परमेश्वर का देहधारण था, यदि वह सचमुच में एक सामान्य मनुष्य के समान भ्रष्ट होता, तो क्या वह ईश्वरीय दृष्टिकोण से पाप में सराबोर मानव जाति के जीवन को देख सकता था? बिल्कुल भी नहीं! मनुष्य के पुत्र और एक सामान्य मनुष्य के बीच यही अन्तर है। ……

    जब परमेश्वर देहधारी हुआ और मानव जाति के बीच रहने लगा, तो उसने अपनी देह में किस प्रकार के दुःख का अनुभव किया? क्या कोई सचमुच में समझ सकता है? कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर ने बड़ा दुःख सहा, और यद्यपि वह स्वयं परमेश्वर है, लोगों ने उसके सार को नहीं समझा और हमेशा उसके साथ एक मनुष्य के समान व्यवहार किया, जिस से वह दुखित और चोटिल महसूस करता है—वे कहते हैं कि परमेश्वर का दुःख भोग सचमुच बहुत बड़ा था। कुछ अन्य लोग कहते हैं कि परमेश्वर निर्दोष और निष्पाप है, परन्तु उसने मनुष्य के समान दुःख उठाया और मनुष्य के साथ साथ सताव, निंदा, और अपमान सहता है; वे कहते हैं कि वह अपने अनुयायियों की ग़लतफहमियों और अनाज्ञाकारिता को भी सहता है—परमेश्वर के दुःख भोग को सचमुच में नापा नहीं जा सकता है। ऐसा दिखाई देता है कि तुम लोग सचमुच में परमेश्वर को नहीं समझते हो। वास्तव में, वह दुःख जिसके बारे में तुम बात करते हो उसे परमेश्वर के लिए सच्चे दुःख के रूप में नहीं लिया जाता है, क्योंकि एक ऐसा दुःख है जो इससे कहीं बढ़कर है। तो स्वयं परमेश्वर के लिए सच्चा दुःख भोग क्या है? परमेश्वर के देहधारी देह के लिए सच्चा दुःख भोग क्या है? परमेश्वर के लिए, मानवजाति का उसे नहीं समझना दुःख भोग के रूप में नहीं लिया जाता है, और जब लोगों को परमेश्वर के बारे में कुछ ग़लतफहमियाँ होना और उसे परमेश्वर के रूप में नहीं देखना दुःख भोग के रूप में नहीं लिया जाता है। हालाँकि, लोग अक्सर महसूस करते हैं कि परमेश्वर ने जरूर एक बहुत बड़ा अन्याय सहा होगा, यह कि जिस समय परमेश्वर देह में है वह अपने व्यक्तित्व को मानवजाति को नहीं दिखा सकता है और उन्हें अपनी महानता को देखने की अनुमति नहीं दे सकता है, और परमेश्वर विनम्रता से एक मामूली देह में छुपा हुआ है, इसलिए यह उसके लिए जरूर कष्टदायी अवश्य रहा होगा। लोग जो कुछ परमेश्वर के दुःख भोग के बारे में समझ सकते हैं और जो कुछ देख सकते हैं उसे दिल से लगा लेते हैं, और परमेश्वर पर हर प्रकार की सहानुभूति अधिरोपित करते हैं और अक्सर यहाँ तक कि उसके लिए एक छोटी सी स्तुति भी प्रस्तुत करते हैं। वास्तविकता में, यहाँ एक अन्तर है, लोग परमेश्वर के दुःख भोग के बारे में जो कुछ समझते हैं और वह सचमुच में जो महसूस करता है उसके बीच एक अंतराल है। मैं तुम लोगों से सच कहता हूँ—परमेश्वर के लिए, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह परमेश्वर का आत्मा है या परमेश्वर का देहधारी देह, वह दुःख वास्तविक दुःख नहीं है। तो यह क्या है कि परमेश्वर ने सचमुच में दुःख उठाया? आओ हम केवल परमेश्वर के देहधारण के दृष्टिकोण से परमेश्वर के पीडा के बारे में बात करें।

    जब परमेश्वर देहधारी हो गया, वह एक औसत, सामान्य व्यक्ति बन गया, और मानव जाति के मध्य और लोगों के आस पास रहने लगा, तो क्या वह लोगों के जीने के तरीकों, व्यवस्थाओं, और दर्शन शास्त्र को देख नहीं सकता था और उन्हें महसूस नहीं कर सकता था? जीने के इन तरीकों और व्यवस्थाओं से उसे कैसा महसूस होता है? क्या वह अपने हृदय में घृणा का एहसास करता था? वह क्यों घृणा का एहसास करेगा? जीने के लिए मानव जाति के क्या तरीके और नियम थे? वे किन सिद्धांतों में जड़ पकड़े हुए थे? वे किस पर आधारित थे? मानव जाति के तरीकों, नियमों इत्यादि पर। जीने के लिए—यह सब कुछ शैतान की तर्क शक्ति, ज्ञान, और दर्शन शास्त्र पर सृजा गया है। मनुष्य जो इस प्रकार के नियमों के अधीन जीते हैं उनके पास कोई मानवता नहीं है, और कोई सच्चाई भी नहीं है—वे सभी सत्य को दूषित करते हैं, और परमेश्वर के बैरी हैं। यदि हम परमेश्वर के सार पर एक नज़र डालें, हम देखेंगे कि उसका सार बिल्कुल शैतान की तर्क शक्ति, ज्ञान, और दर्शन शास्त्र के विपरीत है। उसका सार धार्मिकता, सत्य, और पवित्रता, और सभी सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकताओं से भरा हुआ है। परमेश्वर जो इस सार को धारण किए हुए है और एक ऐसी मानव जाति के मध्य रहता है—वह अपने हृदय में क्या सोचता है? क्या वह दर्द से भरा हुआ नहीं है? उसका हृदय तकलीफ में है, और यह दर्द कुछ ऐसा है जिसे कोई इंसान समझ या महसूस नहीं कर सकता है। क्योंकि सब कुछ जिस का वह सामना करता है, मुकाबला करता है, तथा देखता, सुनता, और अनुभव करता है वह सब कुछ मानव जाति की भ्रष्टता, बुराई, और सत्य के विरोध और अवरोध में उनका विद्रोह है। जो कुछ मनुष्यों से आता है वह उसके दुःख भोग का स्रोत है। ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि उसका सार भ्रष्ट मनुष्यों के समान नहीं है, किन्तु मनुष्यों की भ्रष्टता उसके सब से बड़े दुःख भोग का स्रोत बन गया है। जब परमेश्वर देहधारी हो जाता है, क्या वह किसी को ढूँढ़ सकता है जो उसके साथ एक सामान्य भाषा में बात कर सकता है? इसे मानव जाति में पाया नहीं जा सकता है। किसी को भी ढूँढ़ा नहीं जा सकता है जो परमेश्वर के साथ बातचीत कर सके, इस प्रकार विचारों का अदान प्रदान कर सके—तो तुम क्या कहोगे कि परमेश्वर को कैसा लगता है? वे चीज़ें जिन के विषय में लोग आपस में बातचीत करते हैं, वे उनसे प्रेम करते हैं, यह कि वे जिन के पीछे भागते हैं और जिन्हें पाना चाहते हैं वे सभी पाप से, और बुरी प्रवृतियों से जुडे़ हुए हैं। परमेश्वर इन सब का सामना करता है, क्या यह उसके हृदय में एक कटार के समान नहीं है? इन चीज़ों का सामना करके, क्या उसके हृदय में आनन्द हो सकता है? क्या वह सान्त्वना पा सकता है? वे जो उसके साथ रह रहें हैं वे ऐसे मनुष्य हैं जो उपद्रव और बुराई से भरे हुए हैं—तो उसका दिल क्यों नहीं दुखेगा? यह दुःख भोग वास्तव में कितना बड़ा है, और कौन इस की परवाह करता है? कौन ध्यान देता है? और कौन इस की तारीफ कर सकता है? लोगों के पास परमेश्वर के हृदय को समझने का कोई तरीका नहीं है? उस का दुःख भोग कुछ ऐसा है जिस की तारीफ लोग विशेष रूप से नहीं कर सकते हैं, और मानवता की उदासीनता और चेतना शून्यता ने परमेश्वर के दुःख भोग को और अधिक गहरा कर दिया है।

    कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मसीह की दुर्दशा से अक्सर सहानुभूति दिखाते हैं क्योंकि बाइबल में एक वचन है जो कहता हैः “लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिए सिर धरने की भी जगह नहीं है।” जब लोग इसे सुनते हैं, तो वे इसे दिल में ले लेते हैं और विश्वास करते हैं कि यह सब से बड़ा दुःख भोग है जिसे परमेश्वर ने सहा, और सब से बड़ा दुःख भोग है जिसे मसीह ने सहा। अब, प्रमाणित तथ्यों के दृष्टिकोण से इसे देखने से, क्या मामला ऐसा ही है?परमेश्वर यह विश्वास नहीं करता है कि ये कठिनाईयाँ कष्टकारी हैं। उसने कभी देह की कठिनाईयों के लिए अन्याय के विरूद्ध आवाज़ नहीं उठाई है, और उसने कभी भी मनुष्यों से उनका बदला या उनसे अपने लिए किसी चीज़ का प्रतिफल नहीं लिया है। फिर भी, जब वह मनुष्य जाति की हर चीज़ को देख लेता है, उसके भ्रष्ट जीवन और भ्रष्ट मनुष्यों की बुराई को, और जब वह यह देखता है कि मानव जाति शैतान की चंगुल में है और शैतान के द्वारा कैद है और बचकर निकल नहीं सकते हैं, तो पाप में रहने वाले नहीं जानते हैं कि सच्चाई क्या है—वह इन सब पापों को सहन नहीं सकता है। मानव जाति के प्रति उसकी घृणा दिन ब दिन बढ़ती जा रही है, परन्तु उसे इन सब को सहना ही है। यह परमेश्वर का सब से बड़ा दुःख भोग है। यहाँ तक कि परमेश्वर अपने अनुयायियों के बीच खुलकर अपने हृदय की आवाज़ या अपनी भावनाओं को व्यक्त भी नहीं कर सकता है, और उसके अनुयायियों में से कोई भी उसके दुःख दर्द को समझ नहीं पा रहा है। कोई भी उसके हृदय को समझने या दिलासा देने की कोशिश नहीं कर रहा है—उसका हृदय दिन ब दिन, साल दर साल, और बार बार इस दुःख दर्द को सहता रहता है। तुम इन सब में क्या देखते हो? परमेश्वर ने जो कुछ दिया है उस के बदले में वह मनुष्यों से कुछ भी नहीं माँगता है, परन्तु परमेश्वर के सार के कारण, वह बिल्कुल भी मानव जाति की बुराई, भ्रष्टता, और पाप को सहन नहीं कर सकता है, परन्तु वह बहुत ही ज़्यादा घृणा और नफरत का एहसास करता है, जो परमेश्वर के हृदय और उसकी देह को कभी ना खत्म होनेवाले दुःख दर्द की ओर धकेल देता है। क्या तुम यह सब कुछ देख सकते हैं? ज़्यादा संभावना है, कि तुममें से कोई इसे देख नहीं सकता है, क्योंकि तुममें से कोई भी सचमुच में परमेश्वर को नहीं समझता है। समय के अन्तराल के साथ धीर-धीरे तुम इसे अपने आप में समझ सकते हो।

स्रोत:यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए

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