सात बार के सत्तर गुने तक क्षमा करो। प्रभु का प्रेम

1. सात बार के सत्तर गुने तक क्षमा करो।

    (मत्ती18:21-22) तब पतरस ने आकर उस से कहा, “हे प्रभु, यदि मेरा भाई अपराध करता रहे, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ, क्या सात बार तक?” यीशु ने उससे कहा, मैं तुझ से यह नहीं कहता कि सात बार तक वरन् सात बार के सत्तर गुने तक।

2.प्रभु का प्रेम

    (मत्ती22:37-39) उसने उससे कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।

    इन दोनों अंशों में, एक क्षमा के बारे में बात करता है और दूसरा प्रेम के बारे में बात करता है। ये दोनों कार्य वास्तव में प्रभु यीशु के कार्यों को उजागर करते हैं जिन्हें यीशु अनुग्रह के युग में पूरा करना चाहता है।

    जब परमेश्वर देहधारी हो गया, तो वह उसके साथ अपने कार्य का एक चरण ले कर आया—वह उसके साथ विशिष्ट कार्य और उस स्वभाव को लेकर आया जिसे वह इस युग में व्यक्त करना चाहता था। उस समयकाल में, वह सब कुछ जो मनुष्य के पुत्र ने किया था वह उस कार्य के चारों ओर घूमने लगा था जिसे परमेश्वर इस युग में करना चाहता था। इस के बावजूद कि उसने इसे मानवीय तरीके से मानवीय भाषा में प्रदर्शित किया या ईश्वरीय भाषा में—इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कौन सा तरीका था, या किस दृष्टिकोण से था—उसका उद्देश्य था कि जो वह करना चाहता था, जो उसकी इच्छा थी, और लोगों सेजो उसकी अपेक्षाएँ थीं उन्हें समझने में उनकी सहायता कर सके। वह विभिन्न दृष्टिकोण से विभिन्न माध्यमों का उपयोग कर सकता था ताकि लोगों को उसकी इच्छा को समझने और जानने में मदद मिल सके, और वे मानव जाति को बचाने के उसके कार्य को समझ सकें। इस प्रकार हम अनुग्रह के युग में देखते हैं कि प्रभु यीशु जो मानव जाति को बताना चाहता था उसे प्रदर्शित करने के लिए बार बार मानवीय भाषा का प्रयोग करता है। उस से भी बढ़कर, हम उसे एक सामान्य मार्गदर्शक के दृष्टिकोण से भी देखते हैं जो लोगों के साथ बात कर रहा है, उन की जरूरतों को पूरा कर रहा है, और जिसके लिए उन्होंने विनती की है उस में उनकी सहायता कर रहा है। इस प्रकार का कार्य व्यवस्था के युग में देखने में नहीं आता था जो अनुग्रह के युग के पहले आया था। वह मानव जाति के साथ और ज़्यादा घनिष्ठ हो गया और उनके प्रति और अधिक तरस से भर गया था, साथ ही साथ दोनों रूपों और तरीकों में व्यावहारिक परिणामों को प्राप्त करने में और अधिक सक्षम हो गया था। सात बार के सत्तर गुने तक लोगों को क्षमा करने की अभिव्यक्ति वास्तव में इस बिन्दु को स्पष्ट करती है। इस अभिव्यक्ति की संख्या द्वारा प्राप्त उद्देश्य यह था कि लोगों को प्रभु यीशु के ईरादे को समझने की अनुमति मिल सके जब उसने उस समय ऐसा कहा था। उसका इरादा था कि लोग एक दूसरे को क्षमा कर सकें—ना केवन एक या दो बार, और ना ही सात बार, पर सात बार के सत्तर गुने तक। “सात बार के सत्तर गुने तक” यह किस प्रकार का विचार है? यह इसलिए था कि लोग जान सकें कि क्षमा करना उन की जिम्मेदारी है, ऐसा कुछ जिसे उन्हें सीखना ही होगा, और एक ऐसा मार्ग जिस पर उनको चलना ही होगा। भले ही यह मात्र एक अभिव्यक्ति थी, किन्तु इस ने एक निर्णायक बिन्दु की भूमिका निभाई थी। इस ने लोगों की सहायता की कि जो वह कहना चाहता था वे उसकी गहराई से तारीफ करें और अभ्यास के उचित तरीकों और अभ्यास में सिद्धांतों और ऊँचे स्तर की खोज करें। इस अभिव्यक्ति ने साफ साफ समझने में लोगों की सहायता की और उन्हें एक बिल्कुल सही विचार दिया कि उन्हें क्षमाकरना सीखना होगा—बिना किसी शर्त और बिना किसी सीमाओं के क्षमा करना, किन्तु सहिष्णुता की मानसिकता और दूसरों को समझते हुए। जब प्रभु यीशु ने ऐसा कहा, तब उसके हृदय में क्या था? क्या वह वास्तव में सात बार के सत्तर गुने तक के बारे में सोच रहा था? वह नहीं सोच रहा था। क्या उन समयों की संख्या की गिनती हो सकती है जितनी बार परमेश्वर मनुष्य को क्षमा करेगा। ऐसे बहुत से लोग हैं जो “समयों की संख्या की गिनती” में रूचि रखते हैं जिस का जिक्र हुआ है, जो वास्तव में इस संख्या के उद्गम और अर्थ के बारे में समझना चाहते हैं। वे समझना चाहते हैं कि यह संख्या प्रभु यीशु के मुँह से क्यों निकला था; वे विश्वास करते हैं कि इस संख्या में कहीं गहरा अर्थ निहित है। वास्तव में, यह सिर्फ मानवता में परमेश्वर का बोला गया कथन है। किसी भी अभिप्राय या अर्थ को मानव जाति के प्रति प्रभु यीशु की आकांक्षाओंके साथ साथ लेना होगा। जब परमेश्वर ने देहधारण नहीं किया था, तब जो कुछ वह कहता था लोग उसे काफी हद तक नहीं समझते थे क्योंकि वह पूर्ण दिव्यता से आया था। वह दृष्टिकोण और सन्दर्भ जिन के बारे में वह कहता था वह मानव जाति के लिए अदृश्य और अगम्य था; वह आध्यात्मिक आयाम से प्रकट होता था जिसे लोग समझ नहीं सकते थे। ऐसे लोग जिन्होंने देह में जीवन बिताया था, वे आध्यात्मिक आयाम से होकर गुज़र नहीं सकते थे। परन्तु परमेश्वर के देहधारण के बाद, उसने मनुष्यों से मानवीय दृष्टिकोण से बात की, और वह आध्यात्मिक आयाम के दायरे से बाहर आया और उस से आगे बढ़ गया था। वह अपने दिव्य स्वभाव, इच्छा, और प्रवृत्ति को प्रकट कर सकता था, उन चीज़ों के द्वारा जिसकी कल्पना मनुष्य कर सकते थे और उन चीज़ों के द्वारा जिन्हें उन्होंने अपने जीवन में देखा और सामना किया था, और ऐसी पद्धतियों के प्रयोग के द्वारा जिन्हें मनुष्य स्वीकार कर सकते थे, एक ऐसी भाषा में जिसे वे समझ सकते थे, और ऐसे ज्ञान के द्वारा जिस का वे आभास कर सकते थे, ताकि मानवजाति को उस मात्रा तक जितना वे सह सकते थे परमेश्वर को समझने और जानने, और उनकी क्षमता के दायरे के भीतर उसके इरादे और उसके अपेक्षित ऊँचे स्तर को बूझने की अनुमति दे सके। यह मानवता मे परमेश्वर के कार्य की पद्धति और सिद्धांत थे। यद्यपि देह में होकर कार्य करने से परमेश्वर के तरीकों और सिद्धांतोंको मुख्यतः उसकी मानवता के द्वारा या उस में होकर हासिल किया गया था, फिर भी इस ने सचमुच में ऐसे परिणामों को हासिल किया जिन्हें सीधे ईश्वरीयता में होकर कार्य करने से हासिल नहीं किया जा सकता था। मानवता में परमेश्वर के कार्य ज़्यादा ठोस, प्रमाणिक, और लक्ष्य पर आधारित थे, और पद्धतियाँ कहीं ज़्यादा लचीली थीं, तथा आकार में यह व्यवस्था के युग से बढ़कर हो गया था।

    नीचे, आओ हम प्रभु से प्रेम करने और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करने के बारे में बात करें।क्या यह कुछ ऐसा है जो सीधे तौर पर ईश्वरीयता में प्रकट है? कदापि नहीं! यह सब वे चीज़ें थीं जिन्हें मनुष्य के पुत्र ने मानवता में कहा था; केवल लोग ही कुछ ऐसा कहेंगे “अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। दूसरों से प्रेम करना अपने स्वयं के जीवन का लालन पालन करने के समान है,” और केवल लोग ही ऐसी रीति से बात कर सकते हैं। परमेश्वर ने कभी भी इस तरह बात नहीं की थी। और कम से कम, परमेश्वर के पास अपनी ईश्वरीयता में इस प्रकार की भाषा नहीं थी क्योंकि उसे मानव जाति के प्रति अपने प्रेम को व्यवस्थित करने के लिए इस प्रकार के सिद्धांत की आवश्यकता नहीं थी कि “अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर,” क्योंकि मानव जाति के लिए परमेश्वर का प्रेम जो उसके पास है तथा जो वह है उसका स्वाभाविक प्रकाशन है। क्या तुम लोगों ने कभी सुना है कि परमेश्वर ने कुछ ऐसा कहा “मैं मनुष्य से ऐसा प्रेम करता हूँ जैसा मैं अपने तुम से प्रेम करता हूँ?” क्योंकि प्रेम परमेश्वर के सार में, और जो उसके पास है तथा जो वह है उस में है। मानव जाति के लिए परमेश्वर का प्रेम और वह जिस रीति से लोगों से व्यवहार करता है और उसकी प्रवृत्ति उसके स्वभाव का स्वाभाविक प्रकटीकरण और प्रकाशन है। उसे किसी निश्चित तरीके से जानबूझकर ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, या अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करने के लिए जानबूझकर कर किसी निश्चित तरीके या एक नैतिक नियम का अनुसरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है—उसके पास पहले से ही इस प्रकार का सार है। तुम इसमें क्या देखते हैं? जब परमेश्वर ने मानवता में होकर काम किया, तो उसकी बहुत सारी पद्धतियाँ, कार्य, और सच्चाईयाँ सब कुछ मानवीय तरीके से प्रकट हो गए थे। परन्तु उस समय परमेश्वर का स्वभाव, और जो उसके पास है तथा जो वह है वह सब लोगों के लिए प्रकट हुआ ताकि उन्हें जाना और समझा जा सके। जो कुछ उन्होंने जाना और समझा था वहवास्तव मेंजो उसके पास है तथा जो वह है और उसका सार था, जो स्वयं परमेश्वर की स्वाभाविक पहचान और स्थिति को दर्शाता था। ऐसा कहना चाहिए, कि मनुष्य के पुत्र के देहधारण ने स्वयं परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव और सार को संभावित सब से बड़े पैमाने तक और जहाँ तक हो सके उतने सटीकरूप में प्रकट किया था। ना केवल मनुष्य के पुत्र की मानवतामानवता स्वर्गीय परमेश्वर के साथ मनुष्य के संवाद और परस्पर व्यवहार में एक रूकावट या एक बाधा नहीं थी, किन्तु वह मनुष्य जाति के लिए सृष्टि के प्रभु से जुड़ने का एकमात्र माध्यम और एकमात्र पुल था। इस बिन्दु पर, क्या तुम लोग यह महसूस नहीं करते हो कि अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु के द्वारा किए गए कार्य के स्वभाव और पद्धतियों और कार्य की वर्तमान स्थिति के मध्य बहुत सारी समानताएँ हैं? कार्य की यह वर्तमान स्थिति परमेश्वर के स्वभाव को प्रकट करने के लिए ढेर सारी मानवीय भाषाओं का उपयोग करती है, और यह परमेश्वर की स्वयं की इच्छा को प्रकट करने के लिए मानव जाति के दैनिक जीवन और मानवीय ज्ञान से ढेर सारी भाषाओं और पद्धतियों का भी प्रयोग करती है। एक बार जब परमेश्वर देहधारी हो गया, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह मानवीय दृष्टिकोण से बात कर रहा है या दिव्य दृष्टिकोण से, क्योंकि प्रकटीकरण की उसकी बहुत भाषा और पद्धतियाँ वे सभी मानवीय भाषा एवं पद्धतियों के माध्यम से होती थीं। अर्थात्, जब परमेश्वर देहधारी हुआ, तो यह तुम्हारे लिए उसकी सर्वशक्ति और उसकी बुद्धिमत्ता को देखने और परमेश्वर के प्रत्येक सच्चे पहलू को जानने के लिए बेहतरीन अवसर था। जब परमेश्वर देहधारी हुआ, जैसे जैसे वह बढ़ रहा था, उसने मनुष्य के ज्ञान, व्यावहारिक ज्ञान, भाषा, और मानवता में प्रकटीकरण की पद्धतियों को समझा, सीखा, और आभास किया। परमेश्वर के देहधारण में यह सब चीज़ें थीं जो मनुष्यों से आए थे जिन्हें उसने सृजा था। वे देह में उसके स्वभाव और उसकी ईश्वरीयता को प्रकट करने के लिए परमेश्वर के औज़ार बन गए थे, और जब वह मानवीय दृष्टिकोण से और मानवीय भाषा का प्रयोग करते हुए मनुष्यों के बीच कार्य कर रहा था, तब उन्होंने उसे अपने कार्य को अधिक उचित, अधिक प्रमाणिक, और अधिक सटीक बनाने के लिए स्वीकृति प्रदान की। इस ने लोगों के लिए इसे अधिक सुगम और आसानी से समझने योग्य बनाया, इस प्रकार ऐसे परिणामों को प्राप्त किया जिन्हें परमेश्वर चाहता था। क्या इस तरह देह में बात करना परमेश्वर के लिए अधिक व्यावहारिक नहीं था? क्या यह परमेश्वर की बुद्धि नहीं है? जब परमेश्वर देहधारी हुआ, और जब परमेश्वर का देहधारण उस कार्य को लेने में सक्षम हुआ जिसे वह करना चाहता था, यह तब हुआ जब उसने व्यावहारिक रूप से अपने स्वभाव और अपने कार्य को व्यक्त किया होगा, और यह वह समय भी था जब वह मनुष्य के पुत्र के रूप में आधिकारिक रूप से अपनी सेवकाई की शुरूआत कर सकता था। इसका मतलब था कि अब आगे से परमेश्वर और मनुष्यों के बीच कोई खाई नहीं होगी, और यह कि परमेश्वर जल्द ही सन्देशवाहकों के द्वारा संवाद के अपने कार्य को रोक देगा, और स्वयं परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से सभी वचनों को प्रकट करेगा और देह में होकर काम करेगा जिसे वह करना चाहता था। इसका अर्थ यह भी था कि वे लोग जिन्हें परमेश्वर ने बचाया था उसके बेहद करीब थे, और उसके प्रबन्धकीय कार्य ने एक नए सीमाक्षेत्र में कदम रखा था, और पूरी मानव जाति का आमना सामना एक नए युग से होनेवाला था।

स्रोत:यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए

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प्रभु यीशु का स्वागत करें

प्रभु यीशु ने कहा, “आधी रात को धूम मची : ‘देखो, दूल्हा आ रहा है! उससे भेंट करने के लिये चलो।’ (मत्ती 25:6) प्रकाशितवाक्य की भविष्यवाणी, “देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर

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